________________
२४७
-११]
उपासकाभ्ययन मनुजत्वपूर्वनयनायकस्य भवतो भवतोऽपि गुणोत्तमस्य । ये द्वेषकलुषधिषणा भवन्ति ते जडजं मौक्तिकमपि रेहन्ति ॥५८७॥ नाप्तेषु बहुत्वं यः सहेत पर्यायविभूतिष्वपि महेत । नूनं दुहिणादिषु दैवतेषु के तस्य स्फुटति तथाविधेषु ॥५८८॥ दीक्षासु तपसि वचसि त्वयि नयदिहक्यं सकलगुणैरहीन । तस्मादमि जगतां त्वमेव नाथोऽसि बुधोचितपादसेव ॥५६॥ देव त्वयि कोऽपि तथापि विमुखचित्तो यदि विदलितमैदनविशिख । निन्द्यः स एव घूके दिवापि विडे शीनमुपालभते न कोऽपि ॥५६०॥ निष्किञ्चनोऽपि जगते न कानि जिन दिशसि निकामं कामितानि ।
नैवात्र चित्रमथवा समस्ति वृष्टिः किमु खादिह नो"चकास्ति ॥५६१॥ भावार्थ-अद्वैतवादी केवल एक ब्रह्म तत्त्व ही मानते हैं किन्तु विना द्वैतके अद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि अद्वैतकी सिद्धि विना प्रमाणके तो हो नहीं सकती और प्रमाण माननेसे अनुमान वगैरह प्रमाण मानने पड़ेंगे। तथा बिना पक्ष हेतु और दृष्टान्तके अनुमान नहीं होता और इन सबके माननेसे अद्वैत नहीं ठहरता ।
हे देव ! आप गुणोंसे श्रेष्ठ हैं, फिर भी चूँकि आप अनेकान्त नयके नायक होनेसे पूर्व मनुष्य थे. इसलिए जिनलोगोंकी मति द्वेषसे कलुषित है वे मोतीको इसलिए छोड़ देते हैं चूंकि वह जड़ या जलसे पैदा हुआ है ॥५८७|| हे पूज्य ! जिन्हें अनुक्रमसे होनेवाले बहुत आप्तोंकी मान्यता सब नहीं है निश्चय ही अवतार रूप ब्रह्मादि देवताओंके सामने वे अपना सिर फोड़ते हैं । अर्थात् अनेक देवताओंको जब वे नहीं मानते और फिर भी ब्रह्मादिक देवताओं को सिर नवाते हैं अतः उनका उन्हें सिर नवाना सिर फोड़ना ही जैसा है ॥५८८॥
___ हे सकलगुणशाली ! आपके चारित्रमें, तपमें और वचनमें एकरूपता पायी जाती है अर्थात् जैसा आप कहते हैं वैसा ही आचरण भी करते हैं। इस लिए हे देवताओंसे पूजित चरण ! आप ही तीनों लोकोंके स्वामी हैं, ऐसा मैं मानता हूँ॥ ५८९ ॥
____ कामके वाणोंको चूर्ण कर डालनेवाले हे देव ! फिर भी यदि कोई तुमसे विमुख रहता है तो वही निन्दाका पात्र है, क्योंकि दिनके समय उल्लूके अन्धे हो जानेपर कोई भी सूर्यको दोष नहीं देता ॥ ५९० ॥
हे जिन ! आपके पास कुछ भी नहीं है फिर भी आप जगत्की किन इच्छित वस्तुओंको नहीं देते १ अर्थात् सभीको--इच्छित वस्तु देते हैं । किन्तु इसमें कोई अचरजकी बात नहीं है, क्योंकि शाकाशके पास कुछ भी नहीं है फिर भी क्या आकाशसे वर्षा होती नहीं देखी जाती ॥ ५९१ ॥----
१. अयं जिनः पूर्व नरः । २.'तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य । तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं पाणी कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ॥२३॥'-विषापहार । हरन्ति था. । त्यजन्ति । ३. अनुक्रमेणोत्पन्नेषु । ४. हे पूजाप्राप्त । ५. मस्तकम् । ६. बहुषु हरिहरादिषु । ७. चारित्रेषु । ८. त्वयि विषये निश्चयेन चारित्रादीनामक्यं वर्तते । ९. परिपूर्ण । १०. अहं जानामि । ११. हे चूर्णीकृत मदनवाण। १२. घूके अन्धे सति इन सूर्य न कोऽपि निन्दति । १३. अपि तु सर्वाणि वाञ्छितवस्तूनि त्वं ददासि । १४. किं न भवति । 'तुङ्गात् फलं यत्तदकिंचनाच्च प्राप्यं समदान धनेश्वरादेः। निरम्भसोऽप्यच्चतमादिवानीपि नियति धनी पयोधेः ॥१९॥-विषापहार ।