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सोमदेव विरचित [कल्प ३८, श्लो० ६०० पुष्पैः पर्वभिरम्बुजेबीजस्वर्णाकं कान्तरला। निष्कम्पिताशवलयः पर्यस्थो जपं कुर्यात् ।।६००॥ अङ्गाष्ठे मोक्षार्थी तर्जन्यां (न्या) साधु बहिरिदं नयतु । इतरास्वगुलिषु पुनहिरन्तश्चहिकापेक्षी ॥६०१॥ वचसा वा मनसा वा कार्यों जाप्यः समाहितस्वान्तः । शतगुणमाचे पुण्यं सहस्रसंख्यं द्वितीये तु ॥६०२॥ नियमितकरणप्रामः स्थानासनमानसप्रचारमः। पवनप्रयोगनिपुणः सम्यक्सिद्धो भवेदशेषशः ॥६०३।।
पर्यत आसनसे बैठकर, इन्द्रियोंको निश्चल करके पुष्पोंसे या अँगुलीके पर्वोसे या कमलगट्टोंसे या सोने अथवा सूर्यकान्त मणिके दानोंसे अथवा रत्नोंसे नमस्कारमन्त्रका जप करना चाहिए ॥६००॥
मोक्षके अभिलाषी जपकर्ताको अंगूठेपर मालाको रखकर अंगूठेके पासवाली तर्जनी अंगुलीके द्वारा सम्यक् रीतिसे बाहरकी ओर जप करना चाहिए। और इस लोकसम्बन्धी किसी शुभ कामनाकी पूर्तिके अभिलाषीको शेष अंगुलियोंके द्वारा बाहर या अन्दरकी ओर जप करना चाहिए ॥६०१॥
मनको स्थिर करके वचनसे या केवल मनसे जप करना चाहिए । बोल-बोलकर जप करनेसे सौगुना पुण्य होता है, किन्तु मन-ही-मनमें जप करनेसे हजारगुना पुण्य होता है ॥६०२॥
जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लेता है और स्थान, आसन व मनके संचारको जानता है तथा श्वासोच्छवासके प्रयोगमें सिद्धहस्त होता है, वह सर्वज्ञ होकर सिद्ध पद प्राप्त करता है ॥६०३॥
भावार्थ-आशय यह है कि जपके लिए इन्द्रियोंको वशमें करना आवश्यक है, उसके बिना जपमें मन नहीं लग सकता और बिना मन लगाये जप हो भी नहीं सकता। क्योंकि यदि मुँहसे मन्त्र बोलते रहने और हाथोंसे गुरिया सरकाते रहनेपर भी मन कहीं और भटकता है तो वह जाप बेकार है । ऊपर जो मनसे और वचनसे जाप करना बतलाया है उसका यह मतलब नहीं है कि वचनसे किये जानेवाले जापमें मनको छुट्टी रहती है। मन तो हर हालतमें उसीमें लगा रहना चाहिए । किन्तु मनसे किये जानेवाले जापमें वचनका उच्चारण नहीं किया जाता और मन-ही-मनमें जप किया जाता है । अतः प्रत्येक प्रकारके जपके लिए इन्द्रियोंपर काबू होना आवश्यक है। दूसरे, स्थान कैसा होना चाहिए, आसन किस प्रकार लगाना चाहिए, मन्त्रोंमें मनका संचार किस प्रकार करना चाहिए ये सब बातें भी जप करनवालेको ज्ञात होनी चाहिए। तथा जप करते समय श्वासकी गति कैसी होनी चाहिए, कितने समयमें श्वास लेना चाहिए और
१. कमलगट्टा । २. सूर्यकान्त । ३. सन्याहितस्वान्तः अ. आ. ज. मु. । 'विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः । उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥-मनस्मृतिः २-८५ । 'वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः । पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत् ॥ २४ ॥-अनगारधर्मा० भ. ९ ।