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उपासकाध्ययन विज्ञानप्रमुखाः सन्ति विमुचि' न गुणाः किल यस्य नयोऽत्र वाचि । तस्यैष पुमानपि नैव तत्र दाहाइहनः क इहापरोऽत्र ॥५०॥ धेरणीधरधरणिप्रभृति सजति ननु निपगृहादि गिरिशः करोति । चित्रं तथापि यत्तद्वचांसि लोकेषु भवन्ति महायशांसि ॥१८॥ पुरुषत्रयमबलासक्तमूर्ति तस्मात्परस्तु गतकार्य कीर्तिः।। एवं सति नाथ कथं हि सूत्रमाभाति हिताहितविषयमत्र ॥५८२॥ सोऽहं योऽभूवं बालवयसि निश्चिन्वन्क्षणिकमतं जहासि । संतानोऽप्यत्र न वासनापि यद्यन्वयभावस्तेन नापि ॥५८३॥ चित्तं न विचारकमक्षजनितमखिलं सविकल्पं स्वांशपतितम् ।
उदितानि" वस्तु नैव स्पृशन्ति शाक्याः कथमात्महितान्युशेन्ति ॥५८॥ जिस सांख्यका यह सिद्धान्त है कि मुक्त आत्मामें ज्ञानादिक गुण नहीं हैं उसके मतमें आत्मा भी नहीं ठहरता; क्योंकि जैसे बिना उष्ण गुणके अग्नि नहीं रह सकती वैसे ही ज्ञानादिक गुणोंके बिना आत्मा भी नहीं रह सकता ॥५८०॥
[इस प्रकार सांख्य मतकी आलोचना करके ईश्वरकी आलोचना करते हैं-]
महेश्वर पृथ्वी, पहाड़ वगैरहको तो बनाता है किन्तु मकान, घट वगैरहको नहीं बनाता। आश्चर्य है फिर भी उसके वचन लोकमें प्रसिद्ध हो रहे हैं ॥५८१॥
__ भावार्थ-आशय यह है कि यदि ईश्वर पृथ्वी, पहाड़ वगैरहको बना सकता है तो घट, पट वगैरहको भी बना सकता है फिर उसके लिए कुम्हार और जुलाहे वगैरहकी जरूरत नहीं होनी चाहिए। जैसे उसने मनुष्योंके लिए पृथ्वी वगैरहकी सृष्टि की वैसे ही वह इन चीजोंको क्यों नहीं बना देता । इससे मालूम होता है कि जगत्का कोई रचयिता नहीं है, आश्चर्य है कि फिर भी मनुष्य उसकी बातको माने जाते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो तिलोत्तमा, लक्ष्मी और गौरीमें आसक्त हैं तथा जो परम शिव है वह कायरहित है। हे नाथ ! ऐसी स्थितिमें उनसे हित और अहिंतको बतलानेवाले सूत्रोंका उद्गम कैसे हो सकता है ॥५८२॥
[इस प्रकार वैदिक मतकी आलोचना करके बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं-]
जो मैं बचपनमें था वही मैं हूँ ऐसा निश्चय करनेसे क्षणिक मत नहीं ठहरता । यदि कहा जाये कि सन्तान या वासनासे ऐसी प्रतीति होती है कि मैं वही हूँ तो न तो सन्तान ही बनती है
और न वासना ही सिद्ध होती है। यदि ऐसा मानते हो कि पूर्व क्षणका उत्तर क्षणमें अन्वय पाया जाता है तो आत्माको ही क्यों नहीं मान लेते । तथा इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला निर्विकल्प
१. मुक्तजीवे विज्ञानादयो गुणा न वर्तन्ते । २. जीवोऽपि नास्ति तस्मिन् मते। ३. उष्णत्वं विना यषाऽग्निर्नास्ति तथा विज्ञानादिगुणान् विना आत्माऽपि नास्ति । ४. गिरिप्रभृति यदि वस्तु सूजति तर्हि घटादयोऽपि सृजति । ५. घट । ६. शिवः । ७. परः परम एव शिवः । ८. कायरहितः । ९. 'सोऽहम्' इति मन्यसे चेत्तहि त्वं क्षणिकमतं जहासि । यो जीवः प्रथमसमये विध्वंसं प्राप्तः तस्माज्जीवादन्यो जीवो नोत्पद्यते एवंविधः सन्ताननिषेधोऽस्ति तव मते । यथा सन्तानो नास्ति तथा वासनाऽपि नास्ति । तर्हि कथमुच्यते वासनाया शानमुत्पद्यते। १०. ज्ञानम् । 'तच्च निर्विकल्पकमिव सविकल्पमपि न विचारकम्, पूर्वापरपरामर्शशून्यत्वादभिलापसंसर्गरहितत्वात् ।'-अष्टसह. पृ०७४ । ११. बौद्धोक्तानि । १२. वदन्ति ।