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-५७६] उपासकाध्ययन
२४३ जय निखिलनिलिम्पालापकल्प जगतीस्तुतकीर्तिकलत्रतल्प। जय परमधर्महावतार लोकत्रितयोद्धरणैकसार ॥५७२॥ जय लक्ष्मीकरकमलार्चिताङ्ग सारस्वतरसनटनाटपरङ्ग । जय बोर्धेमध्यसिद्धाखिलार्थ मुक्तिश्रीरमणीरतिकृतार्थ ॥५७३॥ नमदमरमौलिमन्दरतटान्तराजत्पदनखनक्षत्रकान्त । विबुधस्त्रीनेत्राम्बुजविबोध मरकध्वजधनुरुद्धवनिरोध ॥५७४॥ बोधत्रयविदितविधेयतन्त्र का नामापेक्षा तव परत्र । दधतः प्रबोधमसुभृजनस्य गुरुरस्ति कोऽपि किमिहारुणस्य ॥५७५॥ निजबीजंबलान्मलिनापि महति धीः शुद्धि परमामभव भजति।
युक्तः कनकाश्मा भवति हेम किं कोऽपि तत्र विवदेत नाम ॥५७६॥ हे समस्त देवोंकी स्तुतिके ग्रन्थरूप, और हे समस्त पृथिवीके द्वारा स्तुत कीर्तिरूपी स्त्रीके विश्रामके लिए शय्यारूप ! आपकी जय हो। हे परम धर्मरूपी महलके अवतार और हे तीनों लोकोंका उद्धार करनेमें समर्थ ! आपकी जय हो ॥५७२।।
जिनका अङ्ग लक्ष्मीके कर-कमलोंसे पूजित है, जो सारस्वत रसरूपी नटके लिए रंगमंचके तुल्य हैं, जिनके केवलज्ञानमें समस्त पदार्थ प्रतिभासित है तथा जो मुक्तिश्रीरूपी स्त्रीके साथ रमण करके कृतार्थ हो चुके हैं ऐसे हे जिनेन्द्र ! आपकी जय हो ॥५७३॥
नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटरूपी सुमेरुके प्रान्तभागमें जिनके पद नख चन्द्रमाकी भाँति शोभित होते हैं, जो देवांगनाओंके नेत्ररूपी कमलोंको विकसित करते हैं और जो कामदेवके धनुषके उत्सवको रोकते हैं। ऐसे काम-विजेता हे जिनेन्द्र देव ! आप जयवन्त हों ॥५७४॥
हे जिन ! आपने मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तुओंको जान लिया है। इस लिए आपको किसी गुरुकी आवश्यकता नहीं हुई । ठीक ही है प्राणियोंको जगानेवाले सूर्यका भी क्या कोई गुरु है ? हे भवरहित ! महापुरुषोंकी मलिन बुद्धि भी अपने ज्ञान ध्यान आदिके बलसे अत्यन्त शुद्ध हो जाती है। उपायसे स्वर्णपाषाण स्वर्णरूप हो जाता है इसमें क्या किसीको विवाद है ? ॥५७५-५७६॥
भावार्थ-आशय यह है कि तीर्थकर जन्मसे ही तीन ज्ञानके धारी होते हैं, अतः अपने ज्ञानबलसे ही वे जानने योग्य वस्तुओंको जान लेते हैं, उन्हें किसी गुरुसे शिक्षा लेनेकी आवश्यकता नहीं होती। बादको दीक्षा लेकर और तपस्या करके वे चार घातिया कोंका नाश करके पूर्णज्ञानी हो जाते हैं। अतः जैसे खनिसे सोना अशुद्ध ही निकलता है किन्तु उपाय करनेसे मलको दूर करके वही सोना शुद्ध हो जाता है, वैसे ही संसारी आत्मा अशुद्ध होते हुए भी तपस्याके द्वारा शुद्ध हो जाता है और शुद्ध होते ही उसके ज्ञानादिक गुण पूर्ण विकसित हो जाते हैं और तब वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है।
[किन्तु मीमांसक किसी पुरुषका सर्वज्ञ होना स्वीकार नहीं करता। उसका कहना है कि मनुध्यकी बुद्धिमें कुछ विशेषता मानी जा सकती है किन्तु उसका यह मतलब नहीं है कि वह अतीत और अनागतको भी जाम सके, उसे उत्तर देते हुए कहते हैं-]
१. स्तुतिग्रन्थ । २. शय्या। ३. धर्मस्य प्रासादप्रायः। ४. केवलज्ञान । ५. परिच्छेद्यवस्तु । ६. सूर्यस्य । ७. ज्ञानध्यानादि ।