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उपासकाध्ययन
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दैवादायुर्विरामे स्यात्प्रत्याख्यानफलं महत् । भोगशून्यमतः कालं' नावदवतं व्रती ॥३६०॥ एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥३६१॥ श्रायुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमान्नरः । हिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥३६२॥
श्रूयतामत्र हिंसाफलस्योपाख्यानम् - श्रवन्तिदेशेषु सकललोकमनोहरागमारामे शिरीषग्रामे मृगसेनाभिधानो मत्स्यबन्धः स्कन्धावलम्बितगलजालाद्युपकरणः पृथुरोमसमानयनोपनीतैविहरणः कल्लोलजलप्लावितकूलशालेय मालवप्रां सिप्रां सरितमनुसरन्नशेषमहर्षिपरिषद्वर्यमखिलमहाभागभूपतिपरिकल्पितसपर्य 'मिथ्यात्वविरहितधर्मचर्य श्रीयशोधराचार्य निचाय्य' समासन्न सुकृतासाद्यहृदयत्वाद्दरादेव परित्यक्तपापसंपादनोपकरणग्रामः" 'ससंभ्रमं संपादित दीर्घप्रणामः प्रकामप्रगलदेनाः समाहितमनाः 'साधुसमाजसत्तम, समस्तमद्दामुनिजनोत्तम, दैवादुपपन्नपुण्यगृह्यभावोऽनुगृह्यतां कस्यचिद्वतस्य प्रदानेनायं जनः'
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इत्यभाषत ।
मंत्रका स्मरण करके निद्रा वगैरह लो || ३५९ || क्योंकि दैववश यदि आयु समाप्त हो जाये तो त्यागसे बड़ा लाभ होता है। इसलिए व्रतीको चाहिए कि जिस कालमें वह भोग न करता हो उस कालको बिना व्रत के न जाने दे । अर्थात् उतने समयके लिए भोगका व्रत ले ले || ३६० ||
जीव दयाका महत्व
अकेली जीव दया एक ओर है और बाकीकी सब क्रियाएँ दूसरी ओर हैं । अर्थात् अन्य सब क्रियाओंसे जीव दया श्रेष्ठ है । अन्य सब क्रियाओंका फल खेती की तरह है और जीवदयाका फल चिन्तामणि रत्नकी तरह है- जो चाहो सो मिलता है । अकेले एक अहिंसा व्रत के प्रतापसे ही मनुष्य चिरजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान्, सुन्दर और यशस्वी होता है ।। ३६१-३६२।। १३ अहिंसावतके पालक मृगसेन धीवरकी कथा
अब अहिंसाव्रतके फलके सम्बन्धमें एक कथा सुनें
अवन्ति देश के शिरीष नामक गाँव में मृगसेन नामका धीवर रहता था। एक दिन वह कन्धेपर जाल रखकर मछली लाने के लिए सिप्रा नदीकी ओर चला । रास्ते में उसने मुनियोंकी परिषद् के बीच में बैठे हुए तथा राजाओंसे पूजित और मिथ्यात्वसे रहित धर्मका आचरण करनेवाले आचार्य श्री यशोधरको देखा । अपने पापार्जनमें सहायक जाल वगैरह उपकरणोंको दूरसे ही छोड़कर वह आचार्यके पास गया और जल्दी से साष्टांग नमस्कार करके बोला-'हे साधु-समाजमें श्रेष्ठ और समस्त महामुनियोंमें उत्तम मुनिराज ! संचयका यह अवसर मिला है अतः कोई व्रत देकर मुझे अनुगृहीत करें ।'
बड़ी धीरता के साथ आज भाग्यसे ही पुण्य
१. संन्यासफलम् । २. नियमं विना कालं न गमयेत् । ३. अन्यासां क्रियाणां फलं कृषिवत्, दयायास्तु चिन्तामणिवत् । ४. मत्स्य । ५. कृत । ६. ह्रावित ज० । ७. वृक्षश्रेणितटाम् । ८. मिध्यात्वेन विरहिता धर्मचर्या चारित्रं यस्य स तम् । ९. अवलोक्य । १०. समूहः । ११. सादरम् ।