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सोमदेव विरचित [कल्प ३५, श्लो० ५४७ - स्वादोन्मदमिलन्मत्तालिकुलप्रलापोत्सालितनिलिम्पालेप्तिव्यापारिगलम्, अम्बरचरकुमारहेलास्फालितवेणुवल्ल की-पैणवानकमृदङ्गशलकाहलत्रिविलतालझल्लरीभेरीभम्भाप्रभृत्यनवधिधनशुषिर-तंतावनेद्धवाद्यनादनिवेदितनिखिलविष्टि(ट)पाधिपोपासनावसरम्, अनेकामरविकिरकुलकीर्णकिशलयाशोकानोकहोल्लसत्प्रसवपरागपुनरुक्तसकलदिक्पालहृदयरागप्रसरम्, अखिलभुवनैश्वर्यलाञ्छनातपत्रत्रयशिखण्डे मण्डनमणिमयूखरेखालिख्यमानमें 'खमुखरखेचरीभालेतलतिलकपत्रम्, अनवरतयक्षविक्षिप्यमाणोभयपक्षचामरपरम्परांशुजालधवलितविनयजनमनप्रासादचरित्रम्, अशेषप्रकाशितपदार्थातिशायिशारीरप्रभापरिवेषमुषित्परिषे त्सभास्तारमतितिमिरनिकरम् , अनवधिवस्तुविस्तारात्मसात्कारासारविस्फारितसरस्वतीतरङ्गसङ्गसंतर्पितसमस्तसत्त्वसरोजाकरम् , इभारा तिपरिवृढोपवाह्यमानासनावसानलग्गरत्नकरप्रसरपल्ल. वितवियत्पादपाभोगम्, अनन्यसामान्यसमवसरणसभासीनमनुजदिविजभुजे जेन्द्रवृन्दवन्धमानपादारविन्दयुगलम्,
मद्भाविलक्ष्मीलतिकावनस्य प्रवर्धनाव जितवारिपूरैः ।
जिनं चतुर्भिः स्नपयामि कुम्भैर्नभासदोधेनुपयोधराभैः ॥५४७॥ लक्ष्मीकल्पलते समुल्लसजनानन्दैः परं पल्लवै
धर्मारामफलैः प्रकामसुभगस्त्वं भव्यसेव्यो भव बहते हुए मकरन्द ( पुष्प मधुरस ) के स्वादसे मत्त हुए भौरोंके प्रलापसे जिन्होंने गीत गानमें संलग्न देवोंके गलोंको उत्सुक कर दिया है, विद्याधर कुमारोंके द्वारा क्रीड़ासे बजाये गये बाँसुरी, वीणा, ढोल, मृदंग, शंख, नगारा, खरताल, झाँझ, भेरी, नफीरी आदि वाद्योंके नाना प्रकारके शब्दोंसे जिन्होंने समस्त लोकोंके स्वामीकी उपासनाके अवसरको सूचित कर दिया है। (जिनपर लगे हुए) समस्त लोकोंके ऐश्वर्यके चिह्नरूप तीन छत्रोंके मस्तकपर लगी हुई मणिकी किरणोंकी रेखासे स्तुति करती हुई विद्याधरियोंके ललाटपर तिलककी रचना अंकित होती है अर्थात् जिनेन्द्रदेवके ऊपर लगे हुए तीन छत्रोंके मस्तकपर लगी हुए मणिकी किरणें स्तुति करती हुई विद्याधरी नारियोंके मस्तकपर तिलककी तरह प्रतीत होती हैं, दोनों ओर खड़े हुए यक्षोंके द्वारा निरन्तर ढोरे जानेवाले चामरोंकी किरणोंसे शिष्यजनोंके मनरूपी महलको जिन्होंने श्वेत कर दिया है, समस्त प्रकाशशील पदार्थोंको अतिक्रमण करनेवाली शारीरिक प्रभाके परिवेष (घेरा) से जिन्होंने समवसरणमें उपस्थित सदस्योंकी बुद्धिके अन्धकारसमूहको दूर कर दिया है, अनन्त वस्तुओंके विस्तारको प्रत्यक्ष करने रूप महावृष्टिसे बढ़ी हुई सरस्वतीरूपी नदीकी तरंगोंके संसर्गसे जिन्होंने समस्त प्राणीरूपी कमलसमूहको सन्तुष्ट किया है, जिनके सिंहासनमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंके फैलावसे आकाशमें वृक्षका विस्तार पल्लवित हो गया है और अनुपम समवसरण-सभामें बैठे हुए मनुष्य, देव और नागोंके इन्द्रोंका समूह जिनके चरणयुगलकी वन्दना करता हैऐसे जिनेन्द्र देवका मेरी भावी लक्ष्मीरूपी लताके वनको बढ़ानेवाले जलके पूरसे युक्त तथा कामधेनुके स्तनोंके तुल्य चार कलशोंसे अभिषेक करता हूँ ॥५४७॥
जिनभगवान्के तीनों लोकोंको आनन्द देनेवाले गन्धोदकके सिञ्चनसे हे लक्ष्मीरूपी
१. उत्सुकीकृत । २. गीत । ३. वीणा। ४. पटहभेद । ५. नफीरी। ६. तालादि। ७. वंशादि । ८. वीणादि । ९. मरजादि । १०. मस्तक । ११. स्तुति । १२. ललाट । १३. समवसरणसभा १४. सिंह। १५. भुजङ्गमेन्द्र-अ० ज० । १६.-युगम् अ० ज० । १७. उपात्त ।