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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ५५५ अर्हन्तममितनीति निरखनं मिहिरैमाधिदावाम्नः।। माराधयामि हविषा मुक्तिस्त्रीरमितमानसमनङ्गम् ॥५५५॥ भक्त्यानतामराशयकमलवनारालतिमिरमार्तण्डम् । जिनमुपचरामि दीपैः सकलसुखारामकामदमकामम् ॥५५६।। भनुपमकेवलवपुषं सकलेकलाविलयवर्तिरूपस्थम् । योगावगम्यनिलयं यजामहे निखिलंगं जिनं धूपैः ॥५५७॥ स्वर्गापवर्गसंगतिविधायिनं व्यस्तजातिमृतिदोषम् ।
व्योमचरामरपतिभिः स्मृतं फलैर्जिनपतिमुपासे ॥१५८॥ अम्भश्चन्दनतन्दुलोर महविर्तापैः सधूपैः फलै.
रचित्वा त्रिजगद्गुरुं जिनपतिं स्नानोत्सवानन्तरम् । तं स्तौमि प्रजपामि चेतसि दधे कुर्वे श्रुताराधनं
त्रैलोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥५५६॥ "योर्मुदावभृथभाग्भिरुपास्य देवं पुष्पाअलिप्रकरपूरितपादपीठम् । श्वेतातपत्रचमरीरुहदर्पणाद्यैराराधयामि पुनरेनमिनं जिनानाम् ॥५६०॥
_ [इति पूजा] ज्ञानशाली, निर्विकार, दुराशारूपी दावाग्नि ( जङ्गलकी आग) के लिए मेघके समान, निराकार तथा जिनका मन मुक्तिरूपी स्त्रीमें लीन है, उन अर्हन्त देवकी नैवेद्यसे पूजा करता हूँ ॥५५५॥ ___ भक्तिसे विनम्र हुए देवोंके चित्तरूपी- कमलवनका घोर अन्धकार दूर करनेके लिए जो सूर्यके समान हैं, और समस्त सुखोंके लिए उद्यानरूप तथा मनोरथको पूर्ण करनेवाले हैं उन कामरहित जिनेन्द्रदेवकी दीपोंसे पूजा करता हूँ ॥५५६॥
___ अनुपम केवलज्ञान ही जिनका शरीर है, समस्त भाव कोका विनाश हो जानेपर जो रूप रहता है उसी रूपमें जो स्थित हैं, जिनके स्थानको योगके द्वारा जाना जा सकता है और जो केवलज्ञानके द्वारा सर्वत्र व्यापक है, उन जिनदेवकी मैं धूपसे पूजा करता हूँ ॥५५॥
जो स्वर्ग और मोक्षका दाता है, जन्म-मरणरूपी दोषोंसे रहित है, और विद्याधरों तथा देवोंके स्वामी जिनको स्मरण करते हैं, उन जिनेन्द्रदेवकी फलोंसे पूजा करता हूँ ॥५५८॥
- अभिषेक समारोहके पश्चात् तीनों लोकोंके गुरु जिनेन्द्रदेवकी जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजा करके मैं उनका स्तवन करता हूँ, उनका नाम जपता हूँ, उन्हें चित्तमें धारण करता हूँ, शास्त्र की आराधना करता हूँ तथा तीनों लोकोंसे उत्पन्न हुए उनके (ज्ञानरूपी) तेजकी में तीनों कालोंमें श्रद्धा करता हूँ ॥५५॥
भावार्थ-अभिषेकके पश्चात् अष्टद्रव्यसे जिनेन्द्रदेवका पूजन करना चाहिए। तथा पूजनके पश्चात् उनका स्तवन, उनके नामका जप, ध्यान वगैरह तथा शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए।
पुष्पाञ्जलिके समूहसे जिनका पादपीठ-चरणोंके पासका स्थान-भरा हुआ है उन जिनेन्द्रदेवकी अभिषेकपूर्वक पूजासे सहर्ष उपासना करके मैं पुनः उनकी श्वेतछत्र, चमर, दर्पण आदि
१. मेघः । २. कला भावकर्माणि, तासां विलये विनाशे सति सकल कलाविलये वर्तते यत् रूपं तत्सकलकलाविलयतिरूपं तत्र तिष्ठतीति तत्स्थं केवलज्ञानरूपमित्यर्थः। ३. केवलज्ञानापेक्षया सर्वव्यापकम् । ४. पुष्पम् । ५. पूजाभिः । ६. अभिषेक ।