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उपासकाध्ययन आत्मार्जितमपि द्रव्यं द्वापरायान्यथा भवेत् । निजान्धयादतोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ॥३६८॥ मन्दिरे पदिरे नीरे कान्तारे धरणीधरे । तन्नान्यदीयमादेयं स्वापतेयं व्रताश्रयैः ॥३६६॥ पौतर्वन्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म ततो ग्रेहः । विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ॥३७०॥ रत्नरत्लाङ्गरत्नस्त्रीरनाम्बरविभूतयः। भवन्त्यचिन्तितास्तेषामस्तेयं येषु निर्मलम् ॥३७१॥ परप्रमोषतोषेण तृष्णाकृष्णधियां नृणाम् ।
अत्रैव दोषसंभूतिः परत्रैव च दुर्गतिः ॥३७२॥ श्रूयतामत्र स्तेयफलस्योपाख्यानम्-प्रयागदेशेषु निवासविलासवारलाप्रलापवाचालितविलासिनीनूपुरे सिंहपुरे समस्तसमुद्रमुद्रितमेदिनीप्रसाधनसेनः पराक्रमेण सिंह इव सिंहसेनो नाम नृपतिः। तस्य निखिलभुवनजनस्तवनोचितवृत्ता रामदत्ता नामाग्रमहिषी। सुतौ चानयोराश्चर्यसौन्दयौदार्यपरितोषितानिमिषेन्द्रौ सिंहचन्द्र-पूर्णचन्द्रौ नाम । निःशेषशास्त्रविशारदमतिः श्रीभूतिरस्य पुरोहितः सूनृताधिकधिषणतया सत्यघोषापरनामधेयः । उपार्जित द्रव्यमें भी यदि संशय हो जाये कि यह मेरा है या दूसरेका, तो वह द्रव्य ग्रहण करनेके अयोग्य है अतः व्रतीको अपने कुटुम्बके सिवा दूसरोंका धन नहीं लेना चाहिए ॥३६८॥
अतः मकानमें, मार्गमें, पानीमें, जंगलमें या पहाड़में रखा हुआ दूसरोंका धन अचौर्याणुव्रतीको नहीं लेना चाहिए ॥३६९॥ बाँट तराजूका कमती-बढ़ती रखना, चोरीका उपाय बतलाना, चोरीका माल खरीदना, देशमें युद्ध छिड़ जानेपर पदार्थोंका संग्रह कर रखना, ये सब अचौर्याणुव्रतके दोष हैं ॥३७०॥
___ जो निर्दोष अचौर्याणुव्रतको पालते हैं उनको रत्न, सोना, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्न आदि विभूति स्वयं प्राप्त होती है, उसके लिए उन्हें चिन्ता नहीं करनी पड़ती ॥३७१॥ जो मनुष्य दूसरोंकी वस्तुओंको चुराकर प्रसन्न होते हैं, तृष्णासे कलुषित बुद्धिवाले उन मनुष्योंमें इसी जन्ममें अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं और दूसरे जन्ममें भी उनकी दुर्गति होती है ॥३७२॥
१४. चोरीमें आसक्त श्रीभृति पुरोहितकी कथा चोरीके फलके सम्बन्धमें एक कथा है उसे सुनें
प्रयागदेशके सिंहपुर नामक नगरमें सिंहकी तरह पराक्रमशाली सिंहसेन नामका राजा राज्य करता था। उसकी पटरानीका नाम रामदत्ता था। उनके आश्चर्यजनक सौन्दर्य और उदारतासे देवोंके इन्द्रको भी सन्तुष्ट करनेवाले सिंहचन्द्र और पूर्णचन्द्र नामके दो पुत्र थे। समस्त शास्त्रोंमें कुशल श्रीभूति राजाका पुरोहित था। सत्यकी ओर अधिक रुझान होनेके कारण उसका
१. संदेहाय । २. स्ववंशादन्यस्य धनं वर्जयेत् । ३. मार्गे। ४. तुलाहीनाधिक्ये । ५. चौरादानम् । ६. अतीचाराः । 'स्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः॥' तत्त्वार्थ सू० ७-२७ । 'चौरप्रयोगचौरादानविलोपसदृशसन्मित्राः। होनाधिकविनिमानं पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥५८॥' -रत्न० श्रा०। पुरुषार्थसि०, श्लो० १८५। ७. सुवर्णादि । ८. उत्तम । ९. परवस्तुचौर्यहर्षेण । १०. सत्यवचन।