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सोमदेव विरचित
[ कल्प ३५, श्लो० ५०४ ध्यानावलोकविगलत्तिमिरप्रताने तां देव केवलमयीं श्रियमादधाने । आसीत्त्वयि त्रिभुवनं मुहुरुत्सवाय व्यापारमन्थरमिवैकपुरं महाय ||५०४ || छत्रं दधामि किमु चामरमुत्क्षिपामि हेमाम्बुजान्यथ जिनस्य पदेऽर्पयामि । इत्थं मुदामरपतिः स्वयमेव यत्र सेवापरः परमहं किमु वच्मि तत्र || ५०५ ।। त्वं सर्वदोषरहितः सुनयं वचस्ते सत्वानुकम्पनपरः सकलो विधिश्व । लोकस्तथापि यदि तुष्यति न त्वयीश कर्मास्य तच्चनु रवाविव कौशिकस्य ||५०६ || पुष्पं त्वदीयचरणाचनपीठसङ्गाच्चूडामणीभवति देव जगत्त्रयस्य । अस्पृश्यमन्यशिरसि स्थितमप्यतस्तै को नाम साम्यमनुशास्तु रवीश्वेराद्यैः ||५०७ || मिथ्यामहान्धतमसावृतमप्रबोधमेतत्पुरा जगदभूद्भवगर्तपाति । तदेव दृष्टिहृदयाब्जविकासकान्तैः स्याद्वादरश्मिभिरथोद्घृतवांस्त्वमेव || ५०८ || पादाम्बुजद्वयमिदं तव देव यस्य स्वच्छे मनःसरसि संनिहितं समास्ते । तं श्रीः स्वयं भजति तं नियतं वृणीते स्वर्गापवर्गजननी च सरस्वतीयम् ||५०६ ॥ [ इत्यर्हद्भक्तिः ]
हे देव ! ध्यानरूपी प्रकाशके द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकारका फैलाव दूर होनेपर जब आपने केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको धारण किया तो तीनों लोकोंने अपना अपना काम छोड़कर एक नगरकी तरह महान् उत्सव किया ||५०४ ||
'छत्र लगाऊँ या चमर ढोरूँ अथवा जिनदेवके चरणों में स्वर्णकमल अर्पित करूँ' इस प्रकार जहाँ इन्द्र स्वयं ही हर्षित होकर सेवा के लिए तत्पर हैं वहाँ मैं क्या कहूँ ||५०५ ॥ हे देव ! तुम सब दोषोंसे रहित हो, तुम्हारे वचन सुनयरूप हैं - किसी वस्तुके विषयमें इतर दृष्टिकोणों का निराकरण न करके विवक्षित दृष्टिकोणसे वस्तुका प्रतिपादन करते हैं । तथा तुम्हारे द्वारा बतायी गयी सब विधि प्राणियों के प्रति दयाभावसे पूर्ण है। फिर भी लोक यदि तुमसे सन्तुष्ट नहीं होते तो इसका कारण उनका कर्म है । जैसे उल्लूको सूर्यका तेज पसन्द नहीं है किन्तु इसमें सूर्यका दोष नहीं है बल्कि उल्लूके ही कर्मोंका दोष है || ५०६ ||
हे देव! तुम्हारे चरणोंकी पूजाके लिए तुम्हारे आगे जो वेदी रहती है उसके संसर्ग मात्र से फूल तीनों लोकोंके मस्तकका भूषण बन जाता है अर्थात् उस फूलको सब अपने सिरसे लगाते हैं । और दूसरों के सिरपर भी रखा हुआ फूल अस्पृश्य माना जाता है । अतः अन्य सूर्य रुद्रआदि देव - ताओं से तुम्हारी क्या समानता ? ॥ ५०७ ॥
हे देव ! पहले मिथ्यात्वरूपी गाढ़ अन्धकारसे आच्छादित होनेके कारण ज्ञानशून्य • होकर यह जगत् संसाररूपी गढ़े में पड़ा हुआ था । नेत्र-कमल और हृदय - कमलको विकसित करनेवाली स्याद्वादरूपी किरणोंके द्वारा तुमने ही उसका उद्धार किया ||५०८||
हे देव ! जिसके मनरूपी स्वच्छ सरोवर में तुम्हारे दोनों चरणकमल विराजमान हैं उसके पास लक्ष्मी स्वयं आती है तथा स्वर्ग और मोक्षको देनेवाली यह सरस्वती नियमसे उसे वरण करती है ॥ ५०९ ॥
[ इस प्रकार अद्भक्ति करके सिद्ध भक्ति को करे ]
१. सूर्यरुद्राद्यैः । २. नेत्रकमलं हृत्कमलं वा । ३. किरण: आकर्षणापेक्षया रज्जुभिः ।