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उपालकाध्ययन
येषां तृष्णातिमिरभिदुरस्तत्त्वलोका' वलोकात्
पारेवारे प्रशमजलधेः संगवार्थेः परेऽस्मिन् । बाह्यव्याप्तिप्रसरविधुरधित्तवृत्तिप्रचार
स्तेषामचविधिषु भवताद्वारिपूरः श्रिये वः || ५१७ ॥ दूरारूढे प्रणिधितरणावन्तरात्माम्बरेऽस्मि -
नास्ते येषां हृदयकमलं मोदनिस्पन्दवृत्तिः । तत्वालोकावगमगलितध्वान्तं बन्धस्थितीना
मिष्टि तेषामहमुपनये पादयोश्चन्दनेन ||५१८ || येषामन्तस्तदमृतरसास्वादमन्दमचारे
क्षेत्राधीथे विगतनिखिलारम्भसंभोगभावः । ग्रामोक्षाणामुदुषित इवाभाति योगीश्वराणां
कुर्मस्तेषां कलमंसदकैः पूजनं निर्ममाणाम् ||५१६ || देहारामेऽप्युपरतधियः सर्वसंकल्पशान्ते
स्मेविरहिता ब्रह्मधामामृतातेः ।
आत्मात्मीयानुगमचिणमाद्वृतयः शुद्धबोधा
स्तेषां पुष्पैश्चरणकमलाम्यर्चयेयं शिवाय || ५२० ||
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आचार्य भक्ति
तत्त्वोंके यथार्थ प्रकाशसे तृष्णारूपी अन्धकारको दूर कर देनेवाला जिनकी चित्तवृतिका प्रचार बाह्य बातोंमें नहीं होता और परिग्रहरूपी समुद्रके उस पार रहता है, तथा शान्तिरूपी समुद्रके इस पार या उस पार रहता है । अर्थात् जिनकी चित्तवृत्ति परिग्रहकी भावना से मुक्त हो चुकी है और शान्तिरूपी समुद्रमें सदा वास करती है, उन आचार्योंकी पूजा विधिमें अर्पित की गयी जलकी धारा तुम्हारा ( हमारा ) कल्याण करे || ५१७॥
आत्मारूपी आकाशमें ध्यानरूपी सूर्यके अपनी उन्नत अवस्थाको पहुँचनेपर जिनका हृदयकमल हर्षसे निश्चल हो जाता है और तत्त्वोंके दर्शन तथा ज्ञानसे ज्ञानावरणादिक कर्मबन्धकी स्थिति गलने लगती है, उनके चरणोंमें चन्दन अर्पित करके मैं उनकी पूजा करता हूँ ॥ ५९८ ॥ अध्यात्मरूपी अमृत रसके पान करनेसे बाह्य बातोंमें आत्माकी गतिके मन्द पड़ जानेपर जिन योगीश्वरोंकी इन्द्रियोंका समूह समस्त आरम्भादिकको छोड़कर अन्यत्रगत प्रतीत होता है, उन मोहरहित आचार्योंकी हम अक्षतसे पूजा करते हैं ॥ ५१६ ॥
समस्त संकल्पोंके शान्त होजाने के कारण जो शरीर रूप परिग्रहमें भी ममत्व भाव नहीं रखते, ब्रह्मधामरूपी अमृत की प्राप्ति हो जानेके कारण जो भूख-प्यासकी पीड़ाको सहते हुए भी उसका गर्व नहीं करते, आत्मामें भी अपनेपनकी भावना के न होनेसे जिनकी वृत्तियाँ शुद्ध ज्ञानरूप हैं, मोक्षकी प्राप्तिके लिए उनके चरण-कमलोंकी हम पुष्पसे पूजा करते हैं ॥ ५२० ॥
१. समूह । २. येषां चित्तवृत्तिप्रचारः प्रशमजलधेः पारे परकूले अवारे अर्वाकूले वर्तते प्रशमसमुद्रमध्ये एव वर्तते इत्यर्थः । पुनः प्रचारः संगवार्थेः परिग्रहसमुद्रस्य परे पारे वर्तते । तस्मादुत्तीर्ण इत्यर्थः । ३. जलधारा । ४. प्रकर्षप्राप्ते सति । ५. ध्यानसूर्ये । ६. ध्वान्तस्याज्ञानस्य प्रबन्धः समूहः तस्य स्थितिः । ७. परिकल्पयामि । ८. अक्षतैः । ९. देहारम्भे-आ० | बारामं परिग्रहः । १०. ऊर्मिः -पीड़ा क्षुत्पिपासादयः । ११. गर्व ।