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सोमदेव विरचित
संसाराम्बुधिसेतुबन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मी वन
प्रोल्लासामृतवारिवाह मस्खिलत्रैलोक्यचिन्तामणिम् । कल्याणाम्बुजषण्डसंभवसरः सम्यक्त्वरत कृती
[ कल्प ३५, श्लो० ४५६
यो धचे हृदि तस्य नाथ सुलभाः स्वर्गापवर्गश्रियः ||४६६ || [ इति दर्शनभक्तिः ]
श्रत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः
सावर्यः कचिदेव योगिनि स च स्वल्पों मनः पर्ययः । दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथागोचरं
माहात्म्यं निखिलोर्थगे तु सुलभे किं वर्णयामः श्रुतेः ॥४७॥ वैः शिरसा धृतं गणधरैः कर्णावतंसीकृतं
न्यस्तं चेतसि योगिभिर्नृपवरैराघ्रात सारं पुनः । इस्ते दृष्टिपथे मुखे च निहितं विद्याधराधीश्वरै
स्तत्स्याद्वादसरोरुहं मम मनोहंसस्य भूयान्मुदे ||४६८ ॥ मिथ्यातमःपटलभेदनकारणाय स्वर्गापवर्गपुरमार्गनिबोधनाय । तत्तत्त्वभावनमनाः प्रणमामि नित्यं त्रैलोक्यमङ्गलकराय जिनागमाय ॥४६६॥ [ इति ज्ञानभक्तिः ]
हे नाथ ! संसार रूपी समुद्र के लिए सेतुबन्धके समान, क्रमसे उत्पन्न होने वाले रत्नत्रय रूपी वनके विकास के लिए अमृतके मेघके समान, तीनों लोकोंके लिए चिन्तामणि रत्नके समान और कल्याण रूपी कमल समूहकी उत्पत्तिके लिए तालाबके तुल्य, सम्यक्त्वरूपी रत्नको जो पुण्यात्मा हृदयमें धारण करता है उसे स्वर्ग और मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति सुलभ है ||४९६ ॥
सम्यग्ज्ञानकी भक्ति
इन्द्रियोंसे उत्पन्न होने वाले मतिज्ञानका विषय बहुत थोड़ा है । अवधिज्ञान भी द्रव्य क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लेकर केवल रूपी पदार्थों को ही विषय करता है । मनःपर्ययका भी विषय बहुत थोड़ा है और वह भी किसी मुनिके हो जाये तो आश्चर्य ही है । केवलज्ञान महान् है किन्तु उसकी प्राप्ति इस कालमें सुलभ नहीं है । एक श्रुतज्ञान ही ऐसा है जो समस्त पदार्थोंको विषय करता है और सुलभ भी है, उसकी हम क्या प्रशंसा करें ॥ ४९७ ॥
जिसे जिनेन्द्र देवने सिरपर धारण किया, गणधरोंने अपने कानका भूषण बनाया, मुनियोंने अपने हृदय में रखा, राजाओंने जिसका सार ग्रहण किया और विद्याधरोंके स्वामियोने अपने हाथमें, आँखोंके सामने और मुखमें स्थापित किया वह स्याद्वादश्रुत रूपी कमल मेरे मानसरूपी हंसी प्रसन्नता के लिए हो ॥ ४९८ ॥
आगम में कहे हुए तत्त्वोंकी मनमें भावना करता हुआ मैं मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके पटलको दूर करनेवाले और स्वर्ग और मोक्ष नगरका मार्ग बतलानेवाले तथा तीनों लोकोंके लिए मंगलकारक जैन आगमको सदा नमस्कार करता हूँ ॥ ४९९ ॥
१. स्वल्पव्यापारा । २. निखिलार्थगेषु - अजमेरप्रती पाठ: । ३ श्रुते भ० आ० ज० मु० ।