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सोमदेव विरचित
धर्मपत्नी चास्य पतिहितैकचित्ता श्रीदत्ता नामाभूत् ।
सकिल श्रीभूतिर्विश्वासरसनिर्विघ्नतया परोपकारनिघ्नतया च विभक्ताने कापवरकरचनाशालिनीभिर्महाभाण्डवाहिनी भिर्गोशा लोपशल्याभिः कुल्याभिः समन्वितमतिसुलभजलयवसेन्धनप्रचारं भण्डनारम्भोद्भटटीरपेटकपक्षरक्षासारं गोरुतप्रमाणं वप्रप्राकारप्रतोलिपरिखापरिसूत्रितत्राणं प्रपासत्रसभासनाथवीथिनिवेशनं पण्यपुटभेदनं विदूरित कितवविविदूषकपीठमर्दावस्थानं पेण्ठास्थानं विनिर्माप्य नानादिग्देशोपसर्पणयुजां वणिजां "प्रशान्तशुल्कभाटक भागे है। रव्यवहारमचीकरत् ।
[ कल्प २७, श्लो० ३७३
अत्रान्तरे पद्मिनीखेटपट्टनविनिविष्टावासतन्त्रस्य सुदत्ताकलत्रचरित्रपवित्रितगोत्रस्य वणिक्पतेः सुमित्रस्य निजसनाभिजनाम्भोजभानुः सूनुर्भद्रमित्रो नाम समानधनचारित्रैर्वणिक्पुत्रैः सत्रं वहित्रयात्रायां यियासुः
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'पादमायान्निविं कुर्यात्पादं वित्ताय " कल्पयेत् ।
धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्तव्यपोषणे || ३७३ ॥ इति पुण्यश्लोकः ।
श्लोकार्थमवधार्य विचार्य चातिचिरमुपनिधिन्यासयोग्यमावासम् उदिताचारसेव्योऽ"वधारितेति कर्तव्यस्तस्याखिललोकश्लाघ्य विश्वासप्रसूतेः श्रीभूतेर्हस्ते तत्पत्नीसमक्षमनर्घ - नाम सत्यघोष पड़ गया था । उसकी धर्मपत्नीका नाम श्रीदत्ता था । वह सदा पतिका हित चाहती थी ।
श्रीभूति पुरोहितका सब विश्वास करते थे और वह सदा परोपकार में लगा रहता था । उसने एक बाजार बनवाया था । उसमें अनेक गलियाँ थीं, जिनमें अनेक दूकानें बनी हुई थीं, जो मालसे भरी रहती थीं और उनके पासमें ही गोशालाएँ बनी हुई थीं ।
पानी, घास व ईंधन वगैरह बहुत सहूलियतसे मिल जाता था । लड़नेके लिए तत्पर अनेक सुभट वीर उसकी रक्षा करते थे । दो कोसका उसका विस्तार था । खाई, कोट, गली-कूँचा आदि से सुरक्षित था । मार्गों में प्याऊ और सदात्रतशालाएँ बनी हुई थीं, धूर्त, जार और विलासी पुरुषों से रहित था । उसमें नाना देशोंके व्यापारीं व्यापार के लिए आते थे । उनसे बहुत थोड़ा टैक्स, भाड़ा और दान लिया जाता था ।
एकबार पद्मिनीपुर के निवासी, सुदत्ता नामकी सुशील स्त्रीके पति, वणिक्पति सुमित्र के पुत्र भद्रमित्रने धन और चारित्रमें अपने समान अन्य वणिक् पुत्रोंके साथ समुद्र यात्रा करने की इच्छा की।
नीति में कहा है-- " अपनी आमदनीका एक चौथाई तो जमा करके रखना चाहिए । एक चौथाई से व्यापार करना चाहिए। एक चौथाई धार्मिक कार्यों और भोगमें खर्च करना चाहिए और एक चौथाई से अपने आश्रितोंका पालन करना चाहिए ॥ ३७३ ॥
इस नीतिको मानकर भद्रमित्र ने अपने संचित धनको किसी विचार किया और सोच-विचार कर समस्त लोकमें अति विश्वस्त माने
सुरक्षित स्थानमें रखनेका जानेवाले उसी श्रीभूतिके
१. परवशतया । २. गोमहिषीबन्धनस्थानसमीपाभिः । ३. तृण । ४. संग्राम । ५. उत्कट । ६. भरीर - अ० ज०, मु० । सुभट । ७ सहितमार्ग । ८. कामाचार्य । ९. पीठस्थानम् । १०. स्वल्प | ११. दान । १२. गोत्रजन । १३. सह । १४. यानपात्र । १५. उपार्जितलाभमध्यात् । १६. स्थापनम् । १७. पुंजीनिमित्तम् । १८ स्थापनीयद्रव्यस्थापनयोग्यम् । १९ निर्धारित कार्यः ।
अन्तर्द्धानं -