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उपासकाध्ययन श्राझैश्वर्यं लभेतैष यत्र यत्रोपजायते ॥४५१॥ आशादेशप्रमाणस्य गृहीतस्य व्यतिक्रमात् । देशव्रती प्रजायेत प्रायश्चित्तसमाश्रयः ॥४५२॥ शिखण्डिकुक्कुटश्येनबिडालव्यालबभ्रवः । विषकण्टकशस्त्राग्निकषापाशकरजवः ॥४५३|| पापाख्यानाशुभाध्यानहिंसाक्रीडावृथाक्रियाः । परोपतापपैशून्यशोकाक्रन्दनकारिता ॥४५४॥ वधबन्धनसंरोधहेतवोऽन्येऽपि चेदृशाः । भवन्त्यनर्थदण्डाख्याः संपरायप्रवर्धनात् ॥४५५॥ पोषणं क्रूरसत्त्वानां हिंसोपकरणक्रियाम् । देशव्रती न कुर्वीत स्वकीयाचारचारुधीः ।।४५६।। अनर्थदण्डनिर्मोतादवश्यं देशतो यतिः। सुहृत्तां सर्वभूतेषु स्वामित्वं च प्रपद्यते ॥४५७॥
वञ्चनारम्भहिंसानामुपदेशात्प्रवर्तनम् । लेता है वहीं-वहीं उसे ऐश्वर्य और हुकूमत मिलती है ॥ ४५१ ॥
दिशा और देशके किये हुए प्रमाणका उल्लंघन करनेसे अर्थात् उससे बाहर चले जानेसे दिग्वती और देशवतीको प्रायश्चित्त लेना पड़ता है ॥ ४५२ ॥ [अब तीसरे अनर्थदण्डविरति व्रतको कहते हैं-]
अनर्थदण्डविरति व्रतका स्वरूप मोर, मुर्गा, बाज, बिलाव, साँप, नेवला आदि हिंसक जन्तुओंका पालना, विष, काँटा, शस्त्र, आग, कोड़ा, जाल, रस्सा वगैरह हिंसाके साधनोंको दूसरोंको देना, पापका उपदेश देना,
आत और रौद्र ध्यानका करना, हिंसामयी खेल खेलना, व्यर्थ इधर-उधर भटकना, दूसरोंको कष्ट पहुँ* चाना, चुगली करना, रंज करना, रोना, अन्य भी इस प्रकारके जो दूसरोंके घातमें बाँधनेमें और दूसरोंको रोक रखनेमें कारण हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं; क्योंकि उनसे संसारकी वृद्धि होती है-बहुत समय तक संसारमें भटकना पड़ता है ॥ ४५३-४५५ ॥
अपने आचारका पालन करने में दक्ष देशव्रती श्रावकको हिंसक प्राणियोंका पोषण तथा हिंसाके उपकरणोंका दान नहीं करना चाहिए ॥ ४५६ ॥ ऊपर बतलाये हुए अनर्थदण्डोंको छोड़नेसे अणुव्रती श्रावक सब प्राणियोंका मित्र और स्वामी बन जाता है ॥ ४५७॥ उपदेशसे ठगी, आरम्भ, और हिंसाका प्रवर्तन करना, शक्तिसे अधिक बोझा लादना और दूसरोंको अधिक कष्ट देना आदि
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१. दिशा । २. 'मण्डलविडालकुक्कुटमयूरशुक्रसारिकादयो जोवाः। हितकामैन ग्राह्याः सर्वे पापोकारपराः ।।८२॥ -अमितगति० ६-८१ । ३. 'विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादि हिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । -सर्वार्थसि०७-२२ । 'दण्डपाशविडालाश्च विषशस्त्राग्निरज्जवः । परेभ्यो नैव देयास्ते स्वपराघातहेतवः । छेदं भेदवधौ बन्धगुरुभारातिरोपणम् । न कारयति योऽन्येषु तृतीयं तद्गुणवतम् ।' -वरांगचरित, १५.११९-१२० । ४. 'पापद्धिजयपराजयसंगरपरदारगमनचौर्याद्याः। न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात ।' -पुरुषार्थसिद्धि० ॥१४१।। ५. निष्प्रयोजनं भूखननादि । ६. संसार । ७. मैत्रीम् ।