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-४६०] उपासकाध्ययन
२२३ महामुनिमनःपयोधिपरिचितं अशेषभरतैरावतविदेहवर्षधरचक्रवर्तिचूडामणिकुलदैवतं अमरेश्वरमतिदेवतावतंसकल्पवल्लीपल्लवं अम्बरचरलोकहृदयैकमण्डनं अपवर्गपुरप्रवेशागण्यपुण्यपण्यात्मसात्करणसत्यंकारं अनुल्लायदुरघघनघटादुर्दिनेष्वपि जन्तुषु ज्योतिलोंकादिगतिगर्तपातनतमस्काण्डभेदनमामनन्ति मनीषिणः, तस्य संसारपादपोच्छेदप्रथमकारणस्य सकलमालविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरस्सरस्य भगवतः सम्यग्दर्शनरत्नस्याष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा। अपि च
मुक्तिलक्ष्मीलतामूलं युक्तिश्रीवल्लरीवनम् ।
भक्तितोऽर्हामि सम्यक्त्वं भुक्तिचिन्तामणिप्रदम् ॥४०॥ ॐ यनिखिलभुवनतार्तीयलोचनम् , अात्महिताहितविवेकयाथात्म्यावबोधसमासादितसमीचीनभावम् , अधिगमसम्यक्त्वरत्नोत्पत्तिस्थानम्, अखिलास्वपि दशासु क्षेत्रास्वभावसाम्राज्यपरमलाञ्छनम् , अपि च यस्मिन्निदानीमपि नदीनातचेतोभिः सम्यगुपाहितोपयोदेवता है; देवेन्द्रोंकी बुद्धिदेवताको भूषित करनेके लिए कल्पलताके पल्लवके समान है, विद्याधरोंके हृदयका अद्वितीय भूषण है, मोक्षपुरीमें प्रवेश पानेके लिए जिस असंख्य पुण्यरूपी मुद्राकी आवश्यकता होती है, उसके होनेका जो प्रमाणपत्र है, जिसे शास्त्रज्ञ गण अटल महापापरूपी मेघोंकी घटासे ग्रस्त जीवोंके भी ज्योतिर्लोक आदि गतिरूपी गड्ढोंमें गिरानेवाले पापरूपी अन्धकारके पटलका भेदन करने वाला मानते हैं, अर्थात् पापी-से-पापी जीवको भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर प्रथम नरकके सिवाय शेष नरकों और भवनत्रिक देव निकाय आदिमें जन्म लेना नहीं पड़ता, उस संसाररूपी वृक्षको काटनेमें प्रथम कारण, समस्त मङ्गलोंके विधाता और पञ्चपरमेष्ठीके पुरस्कर्ता भगवान् सम्यग्दर्शनकी आठों द्रव्योंसे पूजा करता हूँ।
जो मुक्ति लक्ष्मीरूपी लताका मूल है, युक्ति लक्ष्मीरूपी वेलके लिए जलके तुल्य है और जिससे भोग सामग्री प्राप्त होती है उस चिन्तामणिको देनेवाला है, उस सम्यग्दर्शनकी मैं भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ ॥ ४१० ॥
सम्यग्ज्ञानपूजा जो समस्त लोकोंका तीसरा नेत्र है, या समस्त लोकोंको देखनेके लिए तीसरे नेत्रके तुल्य है ( क्योंकि ज्ञानके द्वारा ही सब जगत्को जाना जा सकता है ), आत्माके हित-अहितके विवेक पूर्वक ठीक-ठीक जाननेके द्वारा ही जिसे समीचीनपना प्राप्त है अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही जानने मात्रसे ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होता किन्तु आत्माके हिताहितको विवेकपूर्वक यथार्थ जाननेसे ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है; जो अधिगम सम्यग्दर्शनरूपी रत्नकी उत्पत्तिका स्थान है (क्योंकि परोपदेशपूर्वक जीवादि तत्त्वोंको जानकर जो सम्यक्त्व होता है उसे अधिगम सम्यग्दर्शन कहते हैं ), सब दशाओं में आत्मस्वभावरूपी साम्राज्यका उत्कृष्ट चिह है अर्थात् जीवकी प्रत्येक अवस्थामें ज्ञान ही उसका उत्तम चिह्न है उसीके द्वारा जीवको जाना जाता है; तथा आज भी सरस्वती रूपी नदीमें स्नान करनेसे जिनके चित्त निर्मल हो गये हैं ऐसे विद्वानोंके द्वारा सम्यकरूप से अपने उपयोगको विशुद्ध कर लेनेपर उनके ज्ञानमें सूर्यकान्तमणिके दर्पणकी तरह स्वभावसे ही
१. पाप। २. जलम् । ३. भुक्तिरेव चिन्तामणिः ( ? )। ४. तृतीय। ५. ज्ञाने । ६. न केवल केवलिनां तीर्थे । ७. सरस्वत्यां स्नातचित्तविद्धिः । ८. आरोपित । ९. ज्ञान ।