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सोमदेव विरचित
[ कल्प ३५, श्लो० ४८
रोचनादिबैखानसरसस्य अनेकशस्त्रिभुवनक्षोभविधायिभिर्ध्यानधैर्यावधूतविष्वक्प्रत्यूहव्यू हैर
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नम्यजनसामान्यवृत्तिभिर्मनोगोचरातिंचरैराश्चर्यप्रभावभूमिभिरनवधारितविधानैस्तैस्तैर्मूलोतगुणग्रामणीभिस्तपःप्रारम्भैः सकलैहिक सुखसाम्राज्यवरप्रदानावहितायातावधारितविस्मितोपनत वनदेवतालकालिकुलविलुप्यमानचरणसरसिरुहपरागस्य निर्वाणपथनिष्ठितात्मनो रत्नजयपुरःसरस्य भगवतः सर्व साधुपरमेष्ठिनोऽष्टतयीमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
अपि च
बोधापगाप्रवाहेण विध्यातानङ्गवह्नयः ।
विध्यारा भ्याङ्घ्रयः सन्तु साध्यबोध्याय साधवः || ४८६॥
ॐ जिनजिनागमजिनधर्मजिनोक्तजीवादितत्त्वावधारणद्वयविजृम्भितनिरतिशयाभिनिवेशाधिष्ठानासु प्रकाशितशङ्काप्राकाम्यावह्लादनकुमतार्तिशल्योद्धारासु प्रशमसंवेगानुकम्पा - स्तिक्यस्तम्भसंभृतासु स्थितिकरणोपगूहनवात्सल्यप्रभावनोपरचितोत्सव सपर्यासु अनेकदिशविशेषनिर्मापितभूमिकासु सुकृतिचेतः प्रासादपरम्परासु कृतक्रीडाविहारमपि च यनिसर्गा
उन्नतिशील व्रतसमूहसे जिन्होंने चारित्रसे डिगे हुए प्राचीन ब्रह्मा, विरोचन आदि ऋषियोंके तापसरसको तिरस्कृत कर दिया है; अनेक बार तीनों लोकोंको क्षोभित कर देनेवाले, ध्यानकी स्थिरता से समस्त विघ्नोंके व्यूहको तिरस्कृत कर देनेवाले, असाधारण मनके अगोचर आश्चर्य - कारक प्रभाववाले और मूलगुण तथा उत्तरगुणोंमें प्रमुख नाना प्रकारके तपोंके अभ्यास से ( क्षुभित होकर ) समस्त इस लोकसम्बन्धी सुखोंके साम्राज्यका वर देनेके लिए आये हुए और तिरस्कृत होनेपर आश्चर्यसे नत हुए वनदेवताओंके केशरूपी भ्रमरोंके द्वारा जिनके चरण-कमलका पराग विलुप्त कर दिया गया है; और जो मोक्षके मार्ग में संलग्न हैं, रत्नत्रयसे भूषित उन सर्व साधु परमेष्ठीकी आठ द्रव्योंसे पूजा करता हूँ ।
ज्ञानरूपी नदी प्रवाहसे जिन्होंने कामरूपी अग्निको बुझा दिया है और जिनके चरण विधिपूर्वक पूजनीय हैं, वे साधु आत्माकी साधना के लिए होंवे ॥४८६॥
सम्यग्दर्शन पूजा
जिन जिनागम, जिनधर्म और जिन भगवान्के द्वारा कहे हुए तत्त्व ही ठीक हैं, अन्य ठीक नहीं हैं, इस प्रकारकी आस्था से बढ़े हुए निरतिशय परिणामस्थानोंसे युक्त, शंका, आकांक्षा, विचि कित्सा और मूढ दृष्टिरूपी शल्योंसे रहित; प्रशम, संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्यरूपी स्तम्भों से स्वचित, स्थितिकरण, उपगूहन, वात्सल्य और प्रभावना सम्बन्धी उत्सवोंके समारोह से भूषित, और देवोंके अनेक भेदोंके द्वारा जिसके कक्षोंका निर्माण हुआ है, ऐसे पुण्यात्माओं के चित्तरूपी महलोंकी पंक्ति में जो क्रीडा-विहार करता हुआ भी निसर्गसे ही महामुनियोंके मनरूपी समुद्रसे परिचित है, समस्त भरत ऐरावत और विदेह क्षेत्रों में होनेवाले चक्रवर्ती चूड़ामणियों ( तीर्थङ्करों ) का कुल
१. तापसः । २. विघ्न । ३. अगम्यैः । ४. सावधान । ५. पूजाविधिना आराध्या अङ्घ्रयः चरणाः येषाम् । ६. साध्यो बोध्य आत्मा यस्य तत् साध्यबोध्यं तस्मै । ७. अयोग अन्ययोगव्यवच्छेदो जिनदेव एव, जिन एव देव इत्यादि । ८ सर्वेषां सम्यग्दृष्टीनामभिप्रायाः परिणामाः समाना एव भवन्ति न न्यूनाधिकाः । ९. आकांक्षा विचिकित्सा मूढदृष्टि एतानि शल्यानि ।