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सोमदेव विरचित [कल्प ३५, श्लो० ४५. निखिलभुवनपतिविहितनिरतिशयसपर्यापरम्परस्य परानपेक्षापर्यायप्रवृत्तसमस्तावलोकलोचनकेवलज्ञानसाम्राज्यलाञ्छनपञ्चमहाकल्याणाष्टकमहापातिहार्यचतुर्विंशदतिशयविशेषविराजितस्य षोडशार्घलक्षणसहस्राङ्कितदिव्यदेहमाहात्म्यस्य द्वादशगणेप्रमुखमहामुनिमनःप्रणिधानसंनिधीयमानपरमेश्वरपरमसर्वशादिनामसहस्रस्य विरहितारिरजोरहाकुहकभावस्य समवसरणसरोवतीर्णजगत्त्रयपुण्डरीकषण्डमार्तण्डमण्डलस्य दुष्पाराजवजवीमाधजलनिमजज्जन्तुजातहस्तावलम्बपरमागमस्य भक्तिभरविनतविष्टपत्रयीपालमौलिमणिप्रभाभोगनभोविजम्भमाणचरण नखानक्षत्रनिकरुम्बस्य सरस्वतीवरप्रसादचिन्तामणेलक्ष्मीलतानिकेतकल्पानोकहस्य कीर्तिपोर्तिकाप्रवर्धनकामधेनोरवीचिपरिचयखलीकारकारणाभिधानमात्रमन्त्रप्रभावस्य सौभाग्यसौरभसंपादनपारिजातप्रसवस्तबकस्य सौरूप्योत्पत्तिमणिमकेरिकाघटनविकटा कारस्य रत्नत्रयपुरःसरस्य भगवतोऽहत्परमेष्ठिनोऽष्टतयोमिष्टिं करोमीति स्वाहा। अपिच
नरोरगसुराम्भोजविरोचनरुचिश्रियम् । आरोग्याय जिनाधीशं करोम्यर्चनगोचरम् ॥४८॥
अहंन्तपूजा समस्त लोकपतियोंने जिनकी लगातार परमोत्कृष्ट पूजा की है, दूसरोंकी सहायताके बिना समस्त पदार्थोंको देखनेवाले लोचनके तुल्य केवलज्ञानरूपी साम्राज्य जिनका चिह्न है,
और जो पाँच महाकल्याणकों, आठ प्रातिहार्यों और चौंतीस अतिशयोंसे सुशोभित हैं, जिनका दिव्य औदारिक शरीर एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त है, बारह गणोंके प्रमुख महामुनि जिनके परमेश्वर परम सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नामोंका चिन्तन अपने मनमें करते हैं, जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातियाकर्मोंसे रहित हैं, जो समवसरणरूपी सरोवरमें आये हुए तीन जगत्के भव्य जीवरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान हैं, जिनके द्वारा उपदिष्ट परमागम दुष्पार संसाररूपी समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंके लिए हस्तावलम्वरूप हैं, भक्तिके भारसे विनत हुए तीनों लोकोंके स्वामियोंके मुकुटोंकी मणियोंके प्रभाविस्तार रूपी आकाशमें जिनके चरणनख खिले हुए नक्षत्र-समूहकी तरह प्रतीत होते हैं, जो सरस्वतीको वरका प्रसाद देनेके लिए चिन्तामणि हैं, लक्ष्मीरूपी लताके लिए कल्पवृक्षके तुल्य हैं, कीर्तिरूपी बछियाके पोषणके लिए कामधेनु हैं, जिनके नाम मात्र मंत्रका प्रभाव नरकगतिकी संगतिको तिरस्कृत करनेवाला है। सौभाग्यरूपी सुगन्धिको देनेके लिए जो पारिजात वृक्षके पुष्पगुच्छके तुल्य हैं, तथा सौरूप्यकी उत्पत्तिरूपी मणिजड़ित पुतलीके निर्माणके लिए जो स्वर्णकारके तुल्य हैं, रत्नत्रयसे भूषित उन भगवान् अर्हन्त परमेष्ठीकी मैं आठ द्रव्यसे पूजा करता हूँ।
तथा मैं आरोग्य-प्राप्तिके लिए मनुष्य, नाग और देवरूपी कमलोंके लिए सूर्यकी शोभाको धारण करनेवाल जिनेन्द्र देवकी पूजा करता हूँ ॥४८५॥
१. गणमहाप्र-आ० । २. अरिर्मोहः। रजो ज्ञानदर्शनावरणद्वयम् । रहः अन्तरायः । कहक-इन्द्रजालम । ३. आजवञ्जवीभाव:-संसारः। ४. विस्तार एव नभः । ५. स्थान । ६. वत्सिका। ७. अवीचिर्नरकविशेषः, तस्य परिचयः संगतिः । ८. धानपात्र-मु० । ९. पुत्तलिका । १०. स्वर्णकारस्य । ११. सूर्य ।
स्थान । . पलिका । ७. अशीचर: