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सोमदेव विरचित [कल्प ३४, श्खो० ४५८भाराधिक्याधिकळशी तृतीयगुणहानये ॥४८॥ *इत्युपासकाध्ययने गुणवतत्रयसूत्रणो नाम प्रयस्त्रिंशत्तमः कल्पः ।
आदौ सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया। सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षाबतचतुष्टयम् ॥४५६ प्राप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥४६०॥
प्राप्तस्यासमिधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् ।
तार्यमुद्रा न किं कुर्याविषसामर्थ्यसूदनम् ॥४६१॥ कर्म अनर्थदण्डव्रतको हानि पहुँचाते हैं, अर्थात् इस प्रकार के कामोंके करनेसे अनर्थदण्डव्रतमें दोष लगता है अतः ऐसे काम अणुव्रती श्रावकको नहीं करना चाहिए ॥ ४५८ ॥
भावार्थ-मन, वचन और कायको दण्ड कहते हैं। और बिना प्रयोजनके उनकी प्रवृत्ति करनेको अनर्थदण्ड कहते हैं। तथा उसको रोकनेको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । अणुव्रती श्रावकको देशकी मर्यादाके अन्दर भी मनसे, वचनसे और कायसे इस प्रकारके काम नहीं करना चाहिए जो दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हों। मनमें किसीका बुरा नहीं विचारना चाहिए । वचनसे जालसाजीका, जीवोंको कष्ट पहुँचानेवाले व्यापारका उपदेश नहीं देना चाहिए और शरीरसे ऐसी चीजें दूसरोंको नहीं देनी चाहिए जिससे दूसरोंका घात किया जा सके या दूसरोंको कष्ट पहुँचाया जा सके । तथा स्वयं भी किसीको कष्ट नही पहुँचाना चाहिए। ऐसा करनेसे मनुष्य बहुतसे व्यर्थके पापोंसे बच जाता है और सब उसे अपना मित्र और रक्षक समझने लगते हैं। इस प्रकार उपासकाध्ययनमें तीन गुणवतोंका कथन करनेवाला तैतीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। [भब शिक्षाव्रतोंको कहते हैं-] सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और दान ये चार शिक्षाव्रत हैं ।।१५।।
सामायिक व्रतका स्वरूप जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनेका जो उपदेश है उसे समय कहते हैं और उसमें उसके इच्छुकजनोंके जो-जो काम बतलाये गये हैं उन्हें सामायिक कहते हैं ॥४६०॥
मूर्तिपूजाका विधान जिनेन्द्र भगवान्के अभावमें उनकी प्रतिमाका पूजन करनेसे भी पुण्यबन्ध होता है। क्या गरुड़ मुद्रा विषकी शक्तिको दूर नहीं करती ? ॥ ४६१ ॥
* अत्र यशस्तिलकचम्पूकाव्यस्य सप्तम आश्वासः समाप्यते; यथा- "इति सकलतार्किकलोकचूडामणे: श्रीमन्नेमिदेवभगवतः शिष्येण सद्योनवद्यगद्यपद्यविद्याधरचक्रवतिशिखण्डमण्डिनीभवच्चरणकमलेन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये सच्चरित्रचिन्तामणि म सप्तम आश्वासः ।
१. भोगोपभोगसंख्या। २. 'आ समयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥९७॥"-रत्नकरण्ड श्रा० । 'समता सर्वभूतेषु संयमः शभभावनाः। आर्त रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥१२२॥-वराङ्गचरित १५ सर्ग। 'रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥१४८॥"-पुरुषार्थ । अमितग० श्रा० ६-८६ । पयनन्दिपञ्चविंश० पृ० १९२ । ३. 'तीर्थशासन्निषानेऽपि प्रतिमा धर्महेतवे। वैनतेयस्य मुद्राऽपि विषं हन्ति न संशयः ॥२२२॥-प्रबोध० । ४. गरुड़ । ५. मपनोदनम् ।