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-४३० ] उपासकाध्ययन
१६ अमृतरुचिमरीचिप्रौढितायां निशायां
प्रियसनि सुहृदस्ते किञ्चिदात्मप्रबोधः ॥४२६॥' भट्टिनी-आर्ये, किमित्यद्यापि गोपाय्यते । धात्री-कर्णजाहमनुसृत्य ) एवमेवम् । भट्टिनी-को दोषः। धात्री-कदा। भट्टिनी-यदा तुभ्यं रोचते।
इतश्चानन्तरायतया 'तनयानुमताहितमतिपाटवः सचिवोऽपि नृपतिनिवासो. चितप्रचारेषु 'वासुरेषु गुणव्यावर्णनावसरायातमेतस्य महीपतेः पुरस्ताच्छ्लोकमिममुपन्यास्थत
'राज्यं प्रवर्धते तस्य किअल्पो यस्य वेश्मनि ।
शत्रवश्व क्षयं यान्ति सिद्धाचिन्तामणेरिव ॥४३०॥' राजा-अमात्य, क तस्य प्रादुर्भूतिः, कीरशी च तस्याकृतिः।
अमात्यः-देव, भगवतः पार्वतीपतेः श्वशुरस्य मन्दाकिनीस्पन्दनिदानकन्दरनीहारस्य रमणसहवरखेचरीसुरतपरिमलमत्तमत्तालिमण्डलीविलिख्यमानमरकतमणिमेखलस्य प्रालेयाचलस्य वृक्षोत्पलषण्डमण्डितशिखण्डस्य रत्नशिखण्डनाम्नः शिखरस्याभ्यासे नि:मन्द-मन्द हवाके किये जानेसे और अत्यन्त सरस कमलोंके डोंडोंको चन्दनके रसमें भिगोकर उनका लेप करनेसे चाँदनी रातमें तेरे प्रेमीको कुछ होश होता है ॥४२९॥
पद्मा--माता! तो अब तक यह बात तुम क्यों छिपाये रहीं ? धाय—(कानमें)। इस इस प्रकार । पद्मा-इसमें क्या बुराई है ? धाय—तो कब ? पद्मा-जब तुम चाहो।
इधर धायका प्रयत्न चालू था उधर मन्त्री भी प्रतिदिन अपने पुत्रकी हित-कामनासे राजाके पास जाता था और राजाके महलमें रहने योग्य पक्षियोंके गुणोंका वर्णन किया करता था । एक दिन अवसर पाकर उसने राजाके सामने एक श्लोक पढ़ा। जिसका मतलब यह था कि जिस राजाके महलमें किञ्जल्प नामका पक्षी रहता है उसका राज्य बढ़ता है और सिद्ध किये गये चिन्तामणि रत्नकी तरह उससे शत्रु नष्ट हो जाते हैं ॥४३०॥
राजा-मन्त्री ! यह पक्षी कहाँ पैदा होता है और उसकी शक्ल कैसी होती है ?
मंत्री स्वामी ! भगवान् महादेवके श्वसुर हिमालय पर्वतकी रलशिखण्ड नामकी चोटीके समीपमें एक गुफा है, जिसमें सब प्रकारके पक्षी उत्पन्न होते हैं। जटायु, वैनतेय, वैशम्पायन
१. -प्रबोधैः आ० ज० ब० । २. कर्णसमोपं शनैः कथितवतो। ३. पुत्र । तयानुमता हि गता मब०। ४. पक्षिषु । ५. पठति स्म। ६. हिमाचलस्य । ७. हिमस्य । हिमं गलित्वा जलं भूत्वा गङ्गा वहति । ८. भर्तृ सहगमन । ९. कणिकार । १०. समीपे ।