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उपासकाध्ययन बाह्यसारते पुसि कुतश्चित्तविशुद्धता । सतुषे हि बहिर्धान्ये दुर्लभान्तर्विशुद्धता ॥४४२॥ सत्पात्रविनियोगेनं योऽर्थसंग्रहतत्परः । लुब्धेषु स परं लुब्धः सहामुत्र धनं नयन् ॥४४३॥ कृतप्रमाणालोभेन धनादधिकसंग्रहः। पत्रमाणुव्रतज्यानि करोति गृहमेधिनाम ॥४४४॥ यस्य द्वन्द्वद्वयेऽप्यस्मिनिस्पृहं देहिनो मनः। स्वर्गापवर्गलक्ष्मीणां क्षणात्पते स दक्षते ॥४४५॥ अत्यर्थमर्थकातायामवश्यं जायते नृणाम् ।
अघसंघचितं चेतः संसारावर्तवर्तगम् ॥४४६॥ . भूयतामत्र परिप्रहामहस्योपाख्यानम्-पञ्चालदेशेषु त्रिदशनिवेशानुकूलोपशल्ये काम्पिल्ये निजमतिमाहात्म्यापहसितामराचार्यप्रतिभो रत्नप्रभो नाम नृपतिः। आत्मीय
जो पुरुष बाह्य परिग्रहमें आसक्त है उसका मन कैसे विशुद्ध रह सकता है ? ठीक ही है, जो धान्य तुष-छिलके सहित है उसके भीतरी भागका स्वच्छ पाया जाना दुर्लभ है ॥४४२॥
भावार्थ-जब धानको कूटकर उसका छिलका अलग कर दिया जाता है तभी साफ चावल निकलता है । छिलकेके रहते हुए उसके अन्दरका चावल भी लाल ही रहता है । वैसे ही बास परिग्रहमें आसक्त रहते हुए मनुष्यका मन स्वच्छ नहीं होता।
____ जो सत्पात्रको दान देकर धनका संग्रह करनेमें तत्पर है, वह उस धनको परलोकमें अपने साथ ले जाता है । अतः वह लोभियोंमें परम लोभी है ॥४४३॥
भावार्थ-जो अपने धनको सत्पात्रोंके लिए खर्च करता है वह असीम पुण्यका बन्ध करता है और उस पुण्यको, जो धन-प्राप्तिका मूल कारण है, वह अपने साथ परलोकमें ले जाता है। उसके प्रभावसे उसे उस जन्ममें भी धनका लाभ होता है। अतः ऐसा आदमी ही सच्चा धनका लोभी है । किन्तु जो धनको ही समेटकर रखता है-न उसे भोगता है और न किसीको देता है वह तो उसे यहीं छोड़ जाता है। अतः सत्पात्रमें धनको खरचना ही उत्तम है। और पुण्यरूपी धन ही सच्चा धन है।
जितने धनका प्रमाण किया है, लोभमें आकर उससे अधिकका संचय करना गृहस्थों के परिग्रह परिमाणव्रतको हानि पहुँचाता है । अर्थात् यह उस व्रतका अतिचार है ॥४४४॥
जिस प्राणीका मन अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहमें निस्पृह है वह क्षण-भरमें स्वर्ग और मोक्षको लक्ष्मीका स्वामी बन जाता है ॥४४॥ ____धनकी बहुत अधिक तृष्णा होनेपर मनुष्योंका मन पापके भारसे दबकर संसाररूपी भँवरके गड्ढेमें चला जाता है ॥४४६॥ अब परिग्रहकी तृष्णाके सम्बन्धमें एक कथा कहते हैं, उसे सुनें
१७. लोभी पिण्याकगंधकी कथा पञ्चाल देशमें कम्पिला नामकी नगरी है, वहाँ रत्नप्रभ राजा राज्य करता था। उसकी
१. दानयोगेन । २. हानिम् । 'कृत"यो धनाधिक्यसंग्रहः'-धर्मर०,१०९५ उ० । 'कृत"धनाद्यधिक्संग्रहः । पञ्चमाणुव्रतहानि"।'-सागारधर्मा०पू०१६४से उद्धृत। ३. परिग्रहे। ४. समीपे। ५.बृहस्पतिबुद्धिः।