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उपासकाध्ययन
जायन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पदाः ॥३७७॥ प्रियशीलः प्रियाचारः प्रियकारी प्रियंवदः । स्यादानृशंसंधीनित्यं नित्यं परहिते रतः ॥३७८॥ केवलिश्रुतसषु देवधर्मतपःसु च । अवर्णवादवाअन्तु वेहर्शनमोहवान् ॥३७६॥ मोक्षमार्ग स्वयं जाननर्थिने यो न भाषते । मदापह्नवमात्सर्यैः स स्यादावरणद्वयी ॥३८०॥ मन्त्रभेदः परीवादः पैशून्यं कूटलेखनम् । मुधासाक्षिपदोक्तिश्च सत्यस्यते विघातकाः ॥३८१॥ परस्त्रीराजविद्विष्टलोकविद्विष्टसंश्रयाम् । अनायकसमारम्भां न कथां कथयेद्बुधः ॥३८२॥ असत्यं सत्यगं किंचित्किचित्सत्यमसत्यगम् ।
सत्यसत्यं पुनः किंचिदसत्यासत्यमेव च ॥३८३॥ अस्येदमैदंपर्यम्-असत्यमपि किंचित्सत्यमेव, यथान्धांसि रन्धयति वयति वासांसीया अपने ऊपर दुर्निवार संकट आता हो ॥ ३७७ ॥
मनुष्यको सदा प्रिय स्वभाववाला, प्रिय आचरणवाला, प्रिय करनेवाला, प्रिय बोलनेवाला, सदा दयालु और सदा दूसरोंके हितमें तत्पर होना चाहिए ॥ ३७८ ।।
जो जीव केवली, शास्त्र, संघ, देव, धर्म और तपमें मिथ्या दोष लगाता है, वह दर्शन मोहनीय कर्मका बन्ध करता है ॥ ३७९ ॥ जो मोक्षके मार्गको जानता हुआ भी, जो उसे जानने को इच्छुक है उसे भी नहीं बतलाता, वह अपने ज्ञानका घमण्ड करनेसे, ज्ञानको छिपानेसे तथा उसके सिवा दूसरा कोई न जानने पावे इस ईर्ष्या भावसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका बन्ध करता है ॥ ३८० ॥
संकेत वगैरहसे दूसरेके मनकी बातको जानकर उसे दूसरोंपर प्रकट कर देना, दूसरेकी बदनामी फैलाना, चुगली खाना, जो बात दूसरेने नहीं कही या नहीं की, दूसरोंका दबाव पड़नेसे ऐसा उसने कहा या किया है इस प्रकारका झूठा लेख लिखना, और झूठी गवाही देना, ये सब काम सत्यव्रतके घातक हैं ॥३८१॥ समझदार मनुष्यको परायी स्त्रियोंकी कथा, राजविरुद्ध कथा, लोकविरुद्ध कथा और कपोलकल्पित व्यर्थ कथा नहीं कहनी चाहिएँ ॥ ३८२ ॥
वचन चार प्रकारका होता है। कोई वचन असत्य-सत्य होता है, कोई वचन सत्य-असत्य होता है । कोई वचन सत्य-सत्य होता है और कोई वचन असत्य-असत्य होता है ॥ ३८३ ॥
इसका यह अभिप्राय है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है, जैसे-'भात पकाता है, या कपड़ा बुनता है'। ये वचन यद्यपि असत्य हैं क्योंकि न भात पकाया जाता है
१. दयासहितबुद्धिः । २. निन्दापरः । 'केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥' तत्त्वा० सू० ६, १३ सू०। ३. 'तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥' ६ तत्त्वा० सू० ६, १० । ४. 'मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः।'-त. सू०७-२६ । 'परिवादरहोभ्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमाः पञ्च सत्यस्य ॥५६॥' -रत्न० श्रा० । परुषार्थसि० श्लो०१८४ । अमित श्राव०, अ०७, श्लो०४। ५. एतत् सर्व गद्यभागसहितं धर्मरत्नाकरे समुपलभ्यते ।