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उपासकाध्ययन मुखस्याधं शरीरं स्याद्घाणार्ध मुखमुच्यते।
नेत्रार्धं घ्राणमित्याहुस्तत्तेषु नयने परे ॥३६३॥ इत्यादिभिः स्वयं विहितविरचनैर्मधुपिङ्गले विप्रीतिं कारयामास ।
ततश्चाम्पेयमञ्जरीसौरभपयःपानलुब्धबोधस्तनन्धयेषु पुष्पन्धयेष्विव मिलितेषु तेषु स्वयंवराह्वानश्पृङ्गारिताहङ्कारेषु महोश्वरेषु सा मन्दोदरीवशमानसा सुलसा श्रुतिमनोहरं सगरमवृणीत्तन्निम्नधरोपगाएँगेव सागरम् । भवति चात्र श्लोकः
अल्पैरपि समथैः स्यात्सहायैर्विजयो नृपः। कार्यायोन्तो हि कुन्तस्य दण्डस्त्वस्य॑ परिच्छदः ॥३६४॥
इत्युपासकाध्ययने सुलसायाः सगरसंगमो नामाष्टाविंशः कल्पः । प्ररूढनिर्वेदकन्दलो मधुपिङ्गलः 'धिगिदमभोगायतनं भोगार्यतनं यदेकदेशदोषादिमामुचितसमागमामपि मामतेन्द्रहामहं नाले प्सि' इति मत्वा विमुक्तसंसारपतः परिगृहीतदीक्षः क्रमेण तांस्तान्ग्रामारामनिवेशानिरनुको "जङ्घाकरिक इव लोचनोत्सवतां नयन्त्रशेनायाबुद्धयायोध्यामागत्यानेकोपवासपरवशहृदयोत्साहस्तीवातपातिश्रान्तदेहो "वाष्पीह इव हैं ॥३९२॥ तथा, शरीरमें मुखके आधे भागका जो मूल्य है वह पूरे शरीरके बराबर है। नाक के आधे भागका मूल्य पूरे मुखके बराबर है । और आधे नेत्रका मूल्य पूरी नाकके बराबर है। इसलिए उन सबमें नेत्र ही वेशकीमत होते हैं ॥३९३॥
इस प्रकारके वचनोंसे उसने उन्हें मधुपिंगलके प्रति विरक्त बना दिया।
इसके बाद स्वयंवर हुआ। जैसे चम्पेकी कलीकी सुगन्धि रूपी दुग्धका पान करनेके लिए भौंरे एकत्र हो जाते हैं उसी तरह स्वयंवरके नियंत्रणको पाकर मदमत्त हुए सब राजा उसमें सम्मिलित हुए। सुलसाका मन तो मन्दोदरीके वशमें था। अतः जैसे नीची भूमिकी ओर बहनेवाली नदी सागरमें जाकर मिल जाती है वैसे ही उसने उन राजाओंमें-से सगर राजाको वरण कर लिया।
इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है
शक्तिशाली थोड़ेसे भी सहायकोंके द्वारा राजा विजयी होता है। जैसे भालेकी नोक ही अपना काम करती है, उसमें लगा डंडा तो उसका सहायक मात्र है ॥३९४॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें सुलसाका सगरके साथ संगम नामका
अठाईसवाँ कल्प समाप्त हुआ। इस घटनासे मधुपिंगलको बड़ा वैराग्य हुआ—'इस भोगशून्य शरीरको धिक्कार हो जिसके एक भागमें दोष होनेसे मैं समागमके योग्य भी मामाकी पुत्री नहीं प्राप्त कर सका' । ऐसा सोचकर उसने संसारको छोड़ दिया और जिन-दीक्षा ले ली। इसके बाद एकाकी पादचारीकी तरह अनेक ग्रामों और नगरोंमें भ्रमण करता हुआ एक दिन अचानक वह भोजनके लिए अयोध्या नगरीमें
१. पूर्वोक्तेषु मध्ये नेत्रे उत्कृष्टे । २. 'चम्पकवल्लरी शुभसुगन्धता एव दुग्धपानं तत्र लोभिष्टज्ञानबालकेषु । ३. निम्नभूगामिनो। ४. नदी। ५. अग्रभागः । ६. कुन्तस्य ।-स्तस्य आ०। ७. भोगरहितम् । ८. शरीरम् । ९. मातुलपुत्रीम् । १०. न प्राप्तवान् । ११. एकाकी। १२. पादचारी। १३. आहारार्थम् । १४. चातकवत् ।