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-३७४ ] उपासकाम्ययन
१७१ भंमित्रः 'चित्रमेतभनु यन्मामपि परविप्रेलम्भाय कुलक्रमायाताखिलकमलानिलयमनन्यसामान्यसाहसालयमेष मोधिषणानिधिरपर इवापायजलनिधिनगरमध्येऽपि मोषितुमभिलषति' इति जातामर्षोत्कर्षस्तं न्यासार्पणेऽतिचिक्कर्णचित्तं निश्चित्य स्वाध्यायिपरिषदि महापरिषदि च तदन्यायोपविन्यासेन साध्यसिद्धिमनवबुद्ध यानंधीनधीः अशङ्कथुकमतिर्महादेवीधामनेमें निवेशमम्लिकानोकहशिखादेशमारुह्यापद्गृयः "कुररीविरहावसरः कुरर इव तस्विनीप्रथमपश्चिमयामसमये 'सुहधराहुतिः श्रीभूतिरेवंविधकरण्डकविन्यस्तम्, इयसंस्थानसम् , एतद्वर्णम् , अदः संख्याभ्यर्ण व मदीयं मणिगणमुपनिधिनिधेयं न प्रतिददातीत्यत्र चास्यैव धर्मरमणी साक्षिणी । यदि च यवदतयैतदन्यथा मनागपि भवति तदा मे चित्रवधो विधातव्यः' इति दीर्घघोषपूर्णितमूर्धमध्यमूर्वबाहुः सर्वर्तुपरिवर्ताध पूत्कुर्वन्नेकदा नगराङ्गनाजनस्य चन्द्रामृतपात्रयन्त्रधारागृहावगाहगौरितजगत्त्रयं कौमुदीमहोत्सवसमयमालोकमानया तमलोत्सङ्गसमासीनया" निपुणिकाभिधानोपसवित्री समेतया अनाथलोकलोचनचकोरकौमुदीकल्पवृत्तया रामदत्त्या करुणारसप्रचारपदव्या महादेव्याकर्णितोऽ'नुक्रोशाभिनिवेशानिर्वर्णितश्च ।।
तदस्मन्मनःसंधात्रि धात्रि, न खल्वेष मनुष्यः पिशाचपरिप्लुतो नाप्युन्मत्ताचरितो
तब भद्रमित्र विचारने लगा-'मेरे घरमें वंशपरम्परासे लक्ष्मीका निवास चला आता है, तथा मैं असाधारण साहसी भी हूँ फिर भी आश्चर्य है कि यह पक्का ठग नगरके बीचमें ही मेरा माल हड़प लेना चाहता है।' यह सोचकर उसे बड़ा क्रोध हो आया। उसे निश्चय हो गया कि श्रीभूति मेरी धरोहरको कभी नहीं देगा तथा समझदारों और धर्माधिकारियोंके सामने उसके अन्यायको रखनेसे भी कुछ लाभ नहीं होगा। तब उस बुद्धिशालीने एक दूसरा उपाय किया।
राजाकी पटरानीके महलके समीप एक इमलीका वृक्ष था। रातके समय वह उसकी चोटीपर चढ़ जाता और जैसे सारसीके विछोहमें सारस चिल्लाता है उस तरह रात्रिके प्रथम और अन्तिम पहरमें हाथ ऊपर उठाकर बड़े जोरसे चिल्लाता--"मेरा पूर्व मित्र किन्तु अव शत्रु श्रीभूति अमुक प्रकारकी पेटीमें रखे हुए, अमुक आकार और अमुक रंगके तथा अमुक संख्यावाले मेरे रत्नोंको नहीं देता । मैंने उसके पास धरोहरके रूपमें रखे थे । इसकी साक्षी उसीकी धर्मपत्नी है। यदि मेरा कथन रंच मात्र भी असत्य हो तो मुझे मरवा दिया जाये।"
___ ऐसा चिल्लाते-चिल्लाते उसे छह माह बीत गये। एकबार अनाथ लोगोंके लोचनरूपी चकोरके लिए चाँदनीके समान आचरणवाली दयावती राजमहिषी रामदत्ता कौमुदी महोत्सव देखती थी । उसके पासमें उसकी धाय निपुणिका बैठी थी। उस समय रामदत्ताने उस वणिक्की पुकार सुनी और दयापूर्ण भावसे अपनी धायसे बोली
'धाय ! न तो यह मनुष्य पिशाचसे ही ठगा गया है और न इसका आचरण पागलोंके
१. परवञ्चननिमित्ते मामपि मोषितुमभिलषति । २. चौर्य । ३. द्वितीयः । ४. क्रोध । ५. स्थापितधनदाने । ६. लोभिष्टम् । ७. धर्माधिकार । ८. न परवशबुद्धिः । ९. असंकमुक-अ० ज० द० । स्थिरमतिः । १०. समीप। ११. पक्षिणी। १२. रात्रि । १३. पूर्व सुहृदिदानीं शत्रुरिति । १४. स्थाप्यं धनम् । १५. असंबद्धप्रलापतया। १६. षण्मासान् यावत् । १७. चन्द्र एवाऽमृतपात्रं तदेव यन्त्रधारागृहम् । १८. उपरितनभूमिस्थितया रामदत्तया। १९. धात्री। २०. मार्गरूपया। २१. करुणाभिप्रायात् ।