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सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो०-३५४ हिंसनाब्रह्मचौर्यादि काये कर्माशुभं विदुः । असत्यासभ्यपारुष्यप्रायं वचनगोचरम् ॥३५४॥ मासूयनादि स्यान्मनोव्यापारसंश्रयम् । एतद्विपर्ययाज्यं शुभमेतेषु तत्पुनः ॥३५॥ 'हिरण्यपशुभूमीनां कन्याशय्यानवाससाम् । दानैर्बहुविधैश्चान्यैर्न पापमुपशाम्यति ॥३५६॥ लवनौषधसाध्यानां व्याधीनां बाघको विधिः । यथाकिञ्चित्करो लोके तथा पापोऽपि मन्यताम् ॥३५७॥ निहत्य निखिलं पापं मनोवाग्देहदण्डनैः । करोतु सकलं कर्म दानपूजादिकं ततः ॥३५८॥ आप्रवृत्तनिवृत्तिमें सर्वस्येति कृतक्रियः। संस्मृत्य गुरुनामानि कुर्यान्निद्रादिकं विधिम् ॥३५६॥
शुभाशुभ योम हिंसा करना, कुशील सेवन करना, चोरी करना आदि कायसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए । झूठ बोलना, असभ्य वचन बोलना और कठोर वचन बोलना आदि वचनसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए ॥३५४॥ घमण्ड करना, ईर्ष्या करना, दूसरोंकी निन्दा करना आदि मनोव्यापार सम्बन्धी अशुभ कर्म हैं। तथा इससे विपरीत करनेसे काय, वचन और मन सम्बन्धी शुभ कर्म जानना चाहिए। अर्थात् हिंसा न करना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि कायिक शुभ कर्म हैं। सत्य और हित मित वचन बोलना आदि वचन सम्बन्धी शुभ कर्म हैं । अर्हन्त आदि की भक्ति करना, तपमें रुचि होना, ज्ञान और ज्ञानियोंकी विनय करना आदि मानसिक शुभ कर्म हैं ॥३५५॥
पापसे बचनेका उपाय सोना, पशु, जमीन, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र तथा अन्य अनेक वस्तुओंके दान देनेसे पाप शान्त नहीं होता ॥३५६॥ जो रोग उपवास करने और औषधीका सेवन करनेसे दूर होते हैं जैसे उनके लिए केवल बाह्य उपचार व्यर्थ होता है वैसे ही पापके विषयमें भी समझना चाहिए । अर्थात् मन वचन और कायको वशमें किये बिना केवल बाह्य वस्तुका त्याग कर देने मात्रसे पाप रूपी रोग शान्त नहीं होता ॥३५७॥ इसलिए पहले मन, वचन और कायको वशमें करके समस्त पापके कारणोंको दूर करो । फिर दान-पूजा वगैरह सब काम करो ॥३५८॥
रात्रिका कर्तव्य रात्रिको जब सोओ तो सन्ध्याकालका कृतिकर्म करके यह प्रतिज्ञा करो कि जबतक मैं गार्हस्थिक कार्योंमें फिरसे न लगूं तबतकके लिए मेरे सबका त्याग है। और फिर पञ्च नमस्कार
१. 'प्राणातिपातं स्तन्यं च परदारानथापि च । त्रीणि पापानि कायेन नित्यशः परिवर्जयेत ।। असत्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा । चत्वारि वाचा राजेन्द्र न जल्पेन्नापि चिन्तयेत् ॥ अस्पृहां परवित्तेषु सर्वसत्त्वेषु सौहृदम् । कर्मणां फलमस्तीति मनसा त्रिविधं चरेत्॥-सुभाषितावली, पृ० ४९२-४९३ । 'स्तेयाब्रह्महिंसादि पापं देहा. श्रितं विदुः । पेशन्यासत्यपारुष्यप्राय भाषोद्भवं तथा ॥५८॥' -प्रबोधसार ।