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उपासकाम्ययन अनन्तकायिकमायं बल्लीकन्दोदिकं त्यजेत् ॥३२६॥ द्विदल द्विदलं प्राश्यं प्रायेणानवतां गतम् । शिम्बयः सकलास्त्याज्याः साधिताः सकलाच याः ॥३३०॥ तत्राहिंसा कुतो यत्र बहारम्भपरिग्रहः । वश च कुशीले च नरे नास्ति दयालुता ॥३३१॥ शोकसंतापसकन्दपरिदेवनदुःबधीः । भवन्स्वपरयोजन्तुरसोर्चाय जायते ॥३३२॥ कषायोदयतीवात्मा भावो यस्योपजायते । जीवो जायेत चारित्रमोहस्यासौ समाश्रयः ॥३३३॥
और जो अनन्तकाय हैं, जैसे लता, सूरण वगैरह, उन्हें भी नहीं खाना चाहिए ॥ ३२९ ॥
पुराने मूंग, उड़द, चना वगैरहको दलनेके बाद ही खाना चाहिए, बिना दले सारा मूंग, सारा उड़द वगैरह नहीं खाना चाहिए । और जितनी साबित फलियाँ हैं चाहे वे कच्ची हों या आगपर पकायी गयी हों, उन्हें नहीं खाना चाहिए। उन्हें खोलकर शोधनेके बाद ही खाना चाहिए ॥३३०॥ जहाँ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह है वहाँ अहिंसा कैसे रह सकती है ? तथा ठग और दुराचारी मनुष्यमें दया नहीं होती ॥ ३३१ ॥
भावार्थ-बहुत आरम्भ करनेवाले और बहुत परिग्रह रखनेवाले कभी अहिंसक हो ही नहीं सकते क्योंकि आरम्भ और परिग्रह हिंसाका मूल है। इसीलिए सागारधर्मामृतमें लिखा है कि जो सन्तोष धारण करके अल्प आरम्भ करता है और अल्पपरिग्रह रखता है उसीका मन शुद्ध रहता है और वही अहिंसाणुव्रतका पालन कर सकता है। इसी तरह व्यभिचारी और ठग भी निर्दय हो जाते हैं। जो दूसरों को सताते हैं, खूब क्रोष वगैरह करते हैं उनके परिणाम भी सदा खराब रहते हैं और उससे उन्हें अशुभ कर्मका बन्ध होता है।
जो मनुष्य स्वयं शोक करता है तथा दूसरोंके शोकका कारण बनता है, स्वयं सन्ताप करता है तथा दूसरोंके संतापका कारण बनता है, स्वयं रोता है तथा दूसरोंको रुलाता या कलपाता है, स्वयं दुःखी होता है और दूसरोंको दुःखी करता है, वह असातावेदनीय कर्मका बन्ध करता है ॥३३२॥ जिसके कषायके उदयसे अति संक्लिष्ट परिणाम होते हैं वह जीव चारित्रमोहनीय कर्मका बध करता है ॥३३३॥
'सन्धानं पुष्पितं मिनं पुष्पं मूलं फलं दलम् । तपान्तर्विवरप्राय हेयं नालीनलादि यत् ॥४९॥' -प्रबोधसार ।
१. गुडच्यादि । २. सूरणादि । ३. द्विदलं द्विदलं हेयं..।-धर्मरत्ना०, ५० ८५ उ० । माषमुद्गादि । ४. विखण्डम् । 'आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकंच नाहरेत् ॥१८॥' -सागारधर्मा० ५ अ.। 'बहुशोऽनन्तदेहास्त्वमृतवल्ल्यादिसंश्रया ॥ शिम्बयोऽपि न हि प्राश्या यतस्तास्त्रससंहिताः ॥५०॥' -प्रबोधसार । ५. 'सिधयः' अ० ज०। सिद्धयः मु० । फलयः । ६. 'दुःखशोकतापाक्रन्दनवषपरिदेवनान्यात्मपरोमयस्थानान्यसद्वेद्यस्य' -तत्वार्थसूत्र. ६-११। ७. 'कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्र. मोहस्य' -तत्त्वार्थसूत्र ६.१४ ।