________________
१५०
सोमदेव विरचित
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि यथाक्रमम् । सवे गुणाधिके लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ॥ ३३४॥ कायेने मनसा वाचाऽपरे सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिमैंत्री मैत्रीविदां मता ॥ ३३५॥ तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥ ३३६॥ दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माभ्यैस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥३३७॥ इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः करस्थो जायते स्वर्गो नास्य दूरे च तत्पदम् ॥३३८॥ पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि किं तिष्ठेयादीधितिमालिनि ॥ ३३६ ॥ सा क्रिया कापि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते । विशिष्यते परं भावावत्र मुख्यानुषङ्गिकौ ॥३४०॥ अनन्नपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षकौ ॥ ३४९ ॥
[ कल्प २६, श्लो० ३३४
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका स्वरूप
सब जीवोंसे मैत्री भाव रखना चाहिए। जो गुणोंमें अधिक हों उनमें प्रमोद भाव रखना चाहिए । दुःखी जीवोंके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए। और जो निर्गुण हों, असभ्य और उद्धत हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए ॥ ३३४ ॥ ' अन्य सब जीवोंकों दुःख न हो' मन, वचन और कायसे इस प्रकारका बर्ताव करनेको मैत्री कहते हैं ||३३५|| तप आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषको देखकर जो विनयपूर्ण हार्दिक प्रेम उमड़ता है उसे प्रमोद कहते हैं ||३३६॥ दयालु पुरुषों की गरीबोंका उद्धार करनेकी भावनाको कारुण्य कहते हैं। और उद्धत तथा असभ्य पुरुषोंके प्रति राग और द्वेषके न होनेको माध्यस्थ्य कहते हैं ||३३७|| जो प्राणी गृहस्थ होकर भी इस प्रकारका प्रयत्न करता है, स्वर्ग तो उसके हाथमें है और मोक्ष दूर नहीं है ॥ ३३८ ॥ पुण्यको प्रकाशमय कहते हैं और पापको अन्धकारमय कहते हैं । दयारूपी सूर्यके होते हुए क्या पुरुषमें पाप ठहर सकता है ? ॥ ३३९ ॥ ऐसी कोई क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा नहीं होती । किन्तु हिंसा और अहिंसाके लिए गौण और मुख्य भावोंकी विशेषता है || ३४०|| संकल्पमें भेद होनेसे धीवर नहीं मारते हुए भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है ॥ ३४१ ॥
१. 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु' – तत्त्वा० सू० ७-११ । २. 'परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री । वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः । दीनानुग्रहभावः कारुण्यम् । रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थम् । सर्वार्थसिद्धि ७-११ । उक्तं- ' कायेन मनसा वाचा सर्वेष्वपि च देहिषु ।' - धर्मर०, प०९६ पू० । ३. माध्यस्थं समुदाहृतं ॥ ५९ ॥ - धर्मर० १० ८६ पू० । ४. 'आरम्भेऽपि सदा हिंसां सुधीः, साङ्कल्पिकीं त्यजेत् । घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽघ्नन्नपि घोवरः ॥२२॥ ' - सागारधर्मा० अ० २। 'मृतेऽपि न भवेत् पापममृतेऽपि भवेद्ध्रुवम् । पापधर्मविधाने हि स्वान्तं हेतुः शुभाशुभम् ॥५६॥ ' - प्रबोधसार ।