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उपासकाध्ययन
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कस्यचित्सन्निविष्टस्य दारान्मातरमन्तरा। वपुःस्पर्शाविशेषेऽपि शेमुषी तु विशिष्यते ॥३४२॥
"परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयो कुरालाः । तस्मात्पुण्योपचयः पापापचयच सुविधेयः" ॥३४३॥
-आत्मानुशासन, श्लो० २३ । वपुषो वचसो वापि शुभाशुभसमाश्रया। क्रिया चित्तादचिन्त्येयं तदत्र प्रयतो भवेत् ॥३४॥ क्रियान्यत्र क्रमेण स्यात्कियत्स्वेव च वस्तुषु ।
जगत्त्रयादपि स्फारा चित्ते तु क्षणतः क्रिया ॥३४५।। भावार्थ-हिंसा और अहिंसाका विवेचन करते हुए पहले बतला आये हैं कि किसीका घात हो जानेसे ही हिंसाका पाप नहीं लगता। संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी हैं फिर भी मात्र इतनेसे ही उसे हिंसा नहीं कह सकते । वास्तवमें तो हिंसा रूप परिणाम ही हिंसा है । जहाँ हिंसारूप परिणाम है वहाँ किसी अन्यका घात न होनेपर भी हिंसा होती है और जहाँ हिंसारूप परिणाम नहीं है वहाँ अन्यका घात हो जानेपर भी हिंसा नहीं होती। उदाहरणके लिए धीवर और किसानको उपस्थित किया जा सकता है। एक मच्छीमार धीवर मछली मारनेके उद्देश्यसे पानीमें जाल डालकर बैठा है। उसके जालमें एक भी मछली नहीं आ रही है फिर भी धीवर हिंसक है क्योंकि उसके परिणाम मछली मारनेमें लगे हैं। दूसरी ओर एक किसान है वह अन्न उपजानेकी भावनासे खेतमें हल चलाता है। हल चलाते समय बहुतसे जीव उसके हलसे मरते जाते हैं किन्तु उसका भाव जीवोंके मारनेका नहीं है बल्कि खेत जोत-बोकर अन्न उत्पन्न करनेका है अतः वह मारते हुए भी पापी नहीं है। इसीलिए गृहस्थको सबसे पहले संकल्पी हिंसाका त्याग करना आवश्यक बतलाया है। ____एक आदमी पत्नीके समीप बैठा है और एक आदमी माताके समीप बैठा है। दोनों ही नारीके अंगका स्पर्श करते हैं किन्तु दोनोंकी भावनाओंमें बड़ा अन्तर है ॥३४२॥
कहा भी है
'कुशल मनुष्य परिणामोंको ही-पुण्य और पापका कारण बतलाते हैं। अतः पुण्यका संचय करना चाहिए और पापकी हानि करनी चाहिए' ॥३४३॥ ... मनके निमित्तसे ही शरीर और वचनकी क्रिया भी शुभ और अशुभ होती है। मनकी शक्ति अचिन्त्य है। इसलिए मनको ही शुद्ध करनेका प्रयत्न करो ॥३४४॥ शरीर और वचनकी क्रिया तो क्रमसे होती हैं और कुछ ही वस्तुओंको अपना विषय बनाती हैं। किन्तु मनमें तो तीनों लोकोंसे भी बड़ी क्रिया क्षण-भरमें हो जाती है। अर्थात् मन एक क्षणमें तीनों लोकोंके बारेमें सोच सकता है ॥३४॥
१. 'भावशुद्धिर्मनुष्याणां विशेया सर्वकर्मसु । अन्यथा चुम्म्यते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ॥' -सुभाषितावलि, पृ० ४९३ । २. काये वचसि च ।