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सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्खो० ३२१गृहकार्याणि सर्वाणि रष्टिपूतानि कारयेत् । द्रवद्रव्याणि सर्वाणि पटपूतानि योजयेत् ॥३२१॥ पासनं शयनं मार्गमन्त्रमन्यव वस्त यत। अदृष्टं तत्र सेवेत यथाकालं भजनपि ॥३२२॥ दर्शनस्पर्शसंकल्पसंसर्गत्यक्तभोजिताः।
हिंसनाकन्दनप्रायाः प्राशप्रत्यूहकारकाः ॥३२३॥ भावार्थ-मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायमें मांससे- श्राद्ध करनेका विधान है तथा यह भी बतलाया है कि किस मांससे श्राद्ध करनेसे कितने दिन तक पितृ लोग तृप्त रहते हैं। पाँचवें अध्यायमें यज्ञके लिए पशुवध करनेका तथा मांस खानेका विधान है। उत्तररामचरितमें लिखा है कि जब वशिष्ठ ऋषि वाल्मीकि ऋषिके आश्रममें पहुंचे तो उनके आतिथ्य-सत्कारके लिए वाल्मीकि ऋषिने गायकी बछियाका वध करवाया। ये सब कार्य हिंसा ही हैं। इसी तरहकी बातोंको देखकर ग्रन्थकारने देवता वगैरहके लिए पशुघात करनेका निषेध किया है। आश्चर्य है कि धर्मके नामपर भी हिंसाका पोषण किया गया है। जब कि हिंसासे बड़ा कोई धर्म नहीं है। इसी तरह दवाईके लिए भी किसीका घात नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने जीवनकी रक्षाके लिए दूसरोंके जीवनको नष्ट कर देनेका हमें क्या अधिकार है ?
पानी वगैरहको छानकर काममें लाओ घरके सब काम देख-भाल कर करना चाहिए। और पतली वस्तुओंको कपड़ेसे छानकर ही काममें लाना चाहिए। आसन, शय्या, मार्ग, अन्न और भी जो वस्तु हो, समयपर उसका उपयोग करते समय बिना देखे उपयोग नहीं करना चाहिए ॥३२१-३२२॥
भावार्थ-प्रत्येक वस्तुको देख-भाल कर काममें लानेकी आदत डालनेसे तथा पानी वगैरहको छानकर काममें लानेसे मनुष्य हिंसासे ही नहीं बचता, किन्तु बहुत-सी मुसीबतोंसे भी बच जाता है। उदाहरणके लिए प्रत्येक वस्तुको देख-भाल कर काममें लानेकी आदतसे साँप, बिच्छू वगैरहसे बचाव हो जाता है। शय्याको बिना झाड़े उपयोगमें लानेसे अनेक मनुष्य साँपके शिकार बन चुके हैं। बिना देखे चाहे जहाँ हाथ डाल देनेसे भी ऐसी ही घटनाएँ प्रायः घटती हैं। बिना छाने या बिना देखे-भाले पानी पी लेनेसे मुरादाबाद जिलेके एक गाँवमें एक लड़केके मुंहमें विच्छ चला गया था और उसके कारण उस लड़केकी मौत बिच्छूके डंक मारते रहनेसे बड़ी कष्टकर हुई थी। अतः प्रत्येक वस्तुको देखकर ही काममें लाना चाहिए और पानी वगैरह कपड़ेसे छानकर ही काममें लाना चाहिए।
भोजनके अन्तराय ताजा चमड़ा, हड्डी, मांस, लोहू और पीब वगैरहका देखना, रजस्वला स्त्री, सूखा
१. 'दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।'-मनुस्मृति अ० ६.४६ । २. 'शयनं यानं मार्गमन्यच्च' -सागारधर्मा० पृ०. १२० । ३. भोजनान्तरायाः। 'दृष्ट्वाऽऽर्द्रचर्मास्थिसुरामांसासूक्पूयपूर्वकम् । स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् । श्रुत्वातिकर्कशाक्रन्दविड्वरप्रायनिःस्वनम् । भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्यविवेचनः ॥ संसृष्टे सति जीवद्भिर्जीवैर्वा बहुभिमूतैः । इदं मांसमिति दृष्टसंकल्पे चाशनं त्यजेत् ॥' – सागारधर्मामृत ४ अ०, श्लो० ३१-३३ । 'उदक्यामपि चाण्डालश्वानकुक्कुटमेव च । भुजानो