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सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो०-३१५ तत्र
हिंसास्तेयानृताब्रह्मपरिग्रहविनिग्रहाः। एतानि देशतः पञ्चाणुव्रतानि प्रचक्षते ॥३१५॥ संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमो व्रतमुच्यते।। प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदसत्कर्मसंभवे ॥३१६॥ हिंसायामनृते चौर्यामब्रह्मणि परिग्रहे।
दृष्टा विपत्तिरत्रैव परत्रैव च दुर्गतिः ॥३१७॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका एक देश त्याग करनेको पाँच अणुव्रत कहते हैं ।। ३१५ ॥
व्रतका लक्षण सेवनीय वस्तुका इरादापूर्वक त्याग करना व्रत है। अथवा अच्छे कार्योंमें प्रवृत्ति और बुरे कार्योंसे निवृत्तिको व्रत कहते हैं ॥३१६॥
भावार्थ-किसी वस्तुके सेवन न करनेका नाम व्रत नहीं है किन्तु उसका बुद्धिपूर्वक त्याग करके सेवन न करना व्रत कहलाता है, क्योंकि किसी वस्तुके सेवन नहीं करनेमें तो अनेक कारण हो सकते हैं। कोई अच्छी न लगनेके कारण किसी वस्तुका सेवन नहीं करता। कोई न मिलनेके कारण किसी वस्तुका सेवन नहीं करता। कोई स्वास्थ्यके अनुकूल न होनेके कारण किसी वस्तुका सेवन नहीं करता। कोई बदनामीके भयसे किसी वस्तुका सेवन नहीं करता । किन्तु यदि वह वस्तु उसे अच्छी लगने लगे, या बाजारमें मिलने लगे, या स्वास्थ्यके अनुकूल पड़ने लगे या वदनामीका भय जाता रहे तो वह उस वस्तुको तुरन्त सेवन करने लगेगा। परन्तु जो किसी वस्तुके सेवन न करनेका नियम ले लेता है वह अपने नियमकाल तक किसी भी अवस्थामें उस वस्तुका सेवन नहीं करता। अतः केवल सेवन न करनेका नाम व्रत नहीं है बल्कि समझ-बूझकर त्याग कर देनेका नाम व्रत है ।
पाँचों पापोंमें बुराई हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने, कुशील सेवन करने और परिग्रहका संचय करनेसे इसी लोकमें मुसीबत आती देखी जाती है और परलोकमें भी दुर्गति होती है ॥३१॥
भावार्थ-भारतीय पिलनकोडमें जिन जुों के लिए सजा देनेका विधान है वे सब जुर्म प्रायः इन पाँच पापोंमें ही सम्मिलित हैं। हिंसा करनेसे फाँसी तक हो जाती है। झूठी बात कहने, झूठी गवाही देनेसे जेलकी हवा खानी पड़ती है। चोरी करनेसे भी यही दण्ड भोगना पड़ता है। दुराचार करनेसे जेलखानेकी साथ-ही-साथ बेतोंकी भी सजा मिलती है। और
१. 'थूले तसकायवहे थूले मोसे तितिक्ख थूले य । परिहारो परपिम्मे परिग्गहारम्भपरिमाणं ॥२३॥' -चारि० प्रा० । “हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाम्याञ्च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम्' ॥४९॥ -रत्नकरण्ड श्रा० । 'प्राणातिपाततः स्थूलाद्विरतिवितथात्तथा। ग्रहणात् परवित्तस्य परदारसमागमात् ॥१८४॥ अनन्तायाश्च गर्दायाः पञ्चसंख्यमिदं व्रतम् ।...' ॥१८५॥ -पापु०, पर्व १४ । २. संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ।। ८० ॥ सागारधर्मामृत अ० २ । ३. सर्वार्थसिद्धि अ०७, सू०९ इसके विवरणके लिए देखें।