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उपासकाध्ययन
-३२०]
यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता ॥१८॥ विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च । अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परिकीर्तितः ॥३१६॥ देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयाय वा।
न हिंस्यात्प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तद्वतम् ॥३२०॥ अनुचित तरीकेसे ज्यादा सामग्री इकट्ठी कर लेनेपर भी सजाका भय बना ही रहता है । तथा परिग्रहीको चोरोंका डर भी सताता रहता है, इसके कारण वह रातको आरामसे सो भी नहीं पाता। जब इसी लोकमें इन पाँच पापोंके कारण इतनी विपत्ति उठानी पड़ती है तब परलोकका तो कहना ही क्या है।
अहिंसा [अब अहिंसा धर्मका वर्णन करते हैं-] ___ प्रमादके योगसे प्राणियोंके प्राणोंका घात करना हिंसा है और उनकी रक्षा करना अहिंसा है ॥३१॥ जो जीव ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रियाँ, निद्रा और मोहके वशीभूत है उसे प्रमादी कहते हैं ॥ ३१९ ॥
भावार्थ-प्रमादके पन्द्रह भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रियाँ, एक निद्रा और एक मोह । विकथा खोटी कथाको कहते हैं जैसे स्त्रियोंकी चर्चा करना, भोजनकी चर्चा करना, चोरोंकी चर्चा करना, ये चर्चाएँ प्रायः कामुकता और मनोविनोदके लिए की जाती हैं
और उनसे लाभके बजाय हानि होती है । अतः जो मनुष्य इस प्रकारकी चर्चाओं में रस लेता है वह प्रमादी है। क्रोध, मान, माया और लोभको कषाय कहते हैं। जो क्रोध करता है, मान करता है, मायाचार करता है या लोभी है वह तो प्रमादी है ही, क्योंकि ऐसा आदमी कभी भी अपने कर्तव्यके प्रति सावधान नहीं रह सकता। इसी तरह जो पाँचों इन्द्रियोंका दाग है उन्हींकी तृप्तिमें लगा रहा है वह भी प्रमादी है। ऐसे लोग किसीका घात करते हुए नहीं सकुचाते । यही बात निद्रा और मोहके सम्बन्धमें जाननी चाहिए। अतः प्रमादके योगसे जो प्राणोंका घात किया जाता है वह हिंसा है किन्तु जहाँ प्रमाद नहीं है वहाँ किसीका घात हो जानेपर भी हिंसा नहीं कहलाती है । इसका खुलासा पहले कर आये हैं।
देवताके लिए, अतिथिके लिए, पितरोंके लिए, मंत्रकी सिद्धिके लिए, औषधिके लिए, अथवा भयसे सब प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए । इसे अहिंसाव्रत कहते हैं ॥३२०॥
१. 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥' -तत्त्वार्थसूत्र ७-१३ । २. 'विकहा तहा कसाया इदिय णिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥ १५॥' -पञ्चसंग्रह-जीवसमास । ३. 'मधुपः च यो च पितृदेवतकर्मणि । अव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यनवीन्मनुः ॥' -मनुस्मृति ५-४१ । 'देवतातिथिप्रीत्यर्थ मन्त्रौषधिमयाय वा। न हिंस्याःप्राणिनः सर्वे अहिंसा नाम तयतम् ।'-वरांग च० १५-११२ । 'देवतातिथिमन्त्रोषधपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना । हिंसा धत्ते नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥२९॥'-अमित श्रावकाचार ६ परि० । 'उक्तं च-देवता'मन्त्रौषधिभयेन वा। -धर्मरला.. पृ.८५।