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उपासकाध्ययन इत्यवगम्य सम्यगवधिबोधोपयोगादवंगतैतदासनपरासुतायोगस्तन्मातरमेवमवोचत्'अहो मातङ्ग, तदुभयान्तरालसज्जां रज्जु सृजतस्तन्मध्ये तव तन्निवृत्तिव्रतम्' इति । मातङ्गस्तथा प्रतिपद्योपसंद्य च तमवकोशं पिशितं प्राश्य 'यावदहमिदं स्थानकं नायामि तावन्मेऽस्य निवृत्तिः' इत्यभिधाय समासादितमदिरास्थानः प्रतिपन्नपानस्तदुग्रतरगरभरालघुलवित्तमतिप्रसरस्तन्निवृत्तिमलभमानचित्तोऽपि प्रेत्ये तावन्मात्रवतमाहात्म्येन यतकुले यक्षमुख्यत्वं प्रतिपेदे। भवति चात्र पन्तोकः
चण्डोऽवन्तिषु माता पिशितस्य निवृत्तितः।
अत्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ॥३१३॥ इत्युपासकाध्ययने मांसनिवृत्तिफलाख्यानो नाम पञ्चविंशतितमः कल्पः । अथ के ते उत्तरगुणाः
"अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणवतम् ।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्यु‘दशोत्तरे ॥३१४॥ और जैसे स्थान और अस्थानका विचार किये बिना मेघ सर्वत्र बरसता है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी हितकी बात कहनेमें स्थान और अस्थानका विचार नहीं करते॥३१२॥' ऐसा सोचकर भगवान् अभिनन्दन मुनिने अवधिज्ञानसे जाना कि यह चाण्डाल जल्द ही मरने वाला है। अतः वे उससे बोले-'भाई चाण्डाल ! मांस खाने और शराब पीनेके बीचमें जितनी देर तुम रस्सी बाँटो उतनी देरके लिए तुम मांस और शराबका त्याग कर दो।'
चाण्डालने इस बातको स्वीकार कर लिया। और वहाँ से चलकर अपने स्थानपर आया। मांसके पास जाकर उसने मांस खाया और संकल्प किया कि जबतक फिर मैं इस स्थानपर नहीं आऊँगा तबतकके लिए मेरे मांसका त्याग है। इसके बाद वह शराबके पास गया और वहाँ उसने शराब पी । पीते ही तीव्र जहरके प्रभावसे उसकी बुद्धि कुण्ठित हो गयी। अतः यद्यपि वह उसका त्याग नहीं कर सका फिर भी मरकर उतने ही व्रतके प्रभावसे यक्षकुलमें प्रधान यक्ष हुआ।
इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है--
"अवन्ति देशमें चण्ड नामका नाण्डाल बहुत थोड़ी देरके लिए मांसका त्याग कर देनेसे मरकर यक्षोंका प्रधान हुआ ॥३१३॥" इस प्रकार उपासकाध्ययनमें मांस त्यागके फलको कहनेवाला पचीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
.. श्वावकोंके उत्तरगुण [अब श्रावकोंके उत्तरगुण बतलाते हैं-] पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह उत्तरगुण हैं ॥३१४॥
१. ज्ञात । २. मरण। ३. यस्मिन् पावें यद्भुक्तं तत्समीपं त्यक्त्वा द्वितीयवारं यावन्नायाति तावकालपर्यन्तं तवतम् । ४. गत्वा। ५. स्थानम् । ६.मांसम् । ७. भुक्त्वा । ८. शीघ्रम् । ९. मद्यनियमम् । १०. मृत्वा । ११. 'पंचेवणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं' ॥२॥ -चारित्रप्रामृत । 'गृहिणां षा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं प्रयं यथासंख्यमाख्यातम् ॥५१॥' -रत्नकरण्ड श्रा० । 'अणुयतानि पञ्चैव त्रिःप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि चत्वारि इत्येतद्वादशात्मकम् ॥' -वरांगचरित १५,१११ । 'तान्यणूनि पञ्चषां शिक्षा चोक्ता चतुर्विधा । गुणास्त्रयो यथाशक्तिनियमास्तु सहस्रशः ॥१८३॥'-पापु०, पर्व १४ । पमनन्दि पञ्च६० पृ० १९