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-२२२] उपासकाध्ययन
१०३ परेषां याचिता किं तु याच्य इति वचनवक्रं शुक्रमवगणय्य बलिः स्वकीयां दत्तिमुदकधारोत्तरामकार्षीत्। ... तदनु स विष्णुमुनिर्विरोचनविरोकनिकर इवाक्रमेणोर्ध्वमधश्चानवधिवृद्धिपरः, पर्वतस्योभयतः प्रवृत्तापगाप्रवाह इव तिरःप्रसर हः, कार्यधरमेकमकूपारवज्रवेदिकायां निधाय परं च क्रम चक्रवालंचूलिकायां पुनस्तृतीयस्य मेदिनीमलभमानस्तफ्नरथाखलनसेतना सुरसरितरीयस्रोतोहेतना संपादितदिविजसन्दरीचरणमार्गविभ्रमण समाचरित. खेचरीचेतःसंभ्रमण भूगोलगौरवपरिच्छेदे तुलादण्डविडम्बनेन चरणेन क्षोभितान्तरितचरपुरकतः किन्नरामरखचरचारणादिवृन्दैर्वन्धमानपादारविन्दः संयतजनोपकारसारस्वकोयद्धिवृद्धिपरितोषितमनीपैय॑न्तरानिमिषैरकारणखलतालतास्थलि बलि सबान्धवमबन्धयत् । प्रायः शयश्च सदेहं रसातलगेहम् । भवति चात्र श्लोकः
महापद्मसुतो विष्णुर्मुनीनां हास्तिने पुरे। बलिद्विजकृतं विघ्न शमयामास वत्सलः ॥२२२॥
इत्युपासकाध्ययने वात्सल्यर चनो नाम विंशतितमः कल्पः
हाथको देखकर शुक्राचार्य बोले- 'बलि ! इस प्रकारका हाथवाला मनुष्य मांगता नही है किन्तु उल्टे उससे माँगा जाता है।'
किन्तु बलिने शुक्राचार्यके कहनेपर ध्यान नहीं दिया और जलकी धारा डालकर तीन पैर जमीनका संकल्प कर दिया।
इसके बाद सूर्यकी किरणोंके समान विष्णु मुनिका शरीर एकदमसे ऊपर नीचे बढ़ने लगा। उन्होंने एक पैर तो समुद्रकी वेदिकापर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वतकी चोटीपर रखा,
और जगह न मिलनेसे सूर्यके रथकी गतिमें प्रतिबन्धक, गंगानदीकी चौथी धाराको उत्पन्न करने में हेतु, देवांगनाओंके चरणमार्गका भ्रम उत्पन्न करनेवाले, विद्याधरोंकी स्त्रियोंके चित्तमें संशयके जनक तथा पृथ्वीकी नापनेके लिए मापकके तुल्य तीसरे चरणसे विद्याधरोंके नगरों में हलचल मच गई । व्यन्तर देवताओंने और विद्याधरों आदिने आकर उनके चरणोंकी वन्दना की। मुनियोंका उपसर्ग दूर करनेमें अपनी विक्रिया ऋद्धिका प्रयोग करनेके कारण व्यन्तर देव उनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बलिको उसके बन्धु-बान्धवोंके साथ बाँध लिया तथा उन्हें सशरीर रसातलको पहुँचा दिया । . इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है
'महापद्म राजाके पुत्र धर्मप्रेमी विष्णु मुनिने हस्तिनागपुरमें बलिके द्वारा मुनियोंपर किया गया उपसर्ग दूर किया ॥२२२॥'
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें वात्सल्य अंगका कथन करनेवाला बीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।
... १. अन्यैर्याचनीयः। २. सूर्यकिरण । ३. सर्वतस्यो-अ० ज०। ४. चरणम् । ५. मानुपोत्तर । ६. सूर्य । ७. चतुर्थ । गंगा किल त्रिपथगा। ८. भ्रान्तिना।