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उपासकाध्ययन है, इसीसे दसवें गुणस्थानतकके जीव सरागी और उससे ऊपरके जीव वीतरागी कहे जाते हैं । चोथे, यदि सरागताका कारण सम्यग्दर्शन सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागताका कारण सम्यग्दर्शन वीतरागसम्यग्दर्शन कहा जायेगा तो सम्यग्दर्शनके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भेदोंमें सरागता और वीतरागताका कारण होनेकी दृष्टि से भेद करना होगा। इन तीनमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो सातवें गुणस्थानतक ही होता है और उसमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय भी रहता है अतः वह तो सरागसम्यक्त्व ही ठहरता है। किन्तु शेष दो सम्यम्दर्शन दसर्व गुणस्थानतक सराग अवस्थामें भी पाये जाते हैं और उससे ऊपर वीतराग अवस्था में भी पाये जाते हैं । अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि इन दोनों सम्यग्दर्शनोंको सरागताका कारण माना जाये या वीतरागताका अथवा दोनोंका ? दोनोंको सरागताका कारण तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि यदि क्षायिक सम्यग्दर्शनको भी सरागताका कारण माना जायेगा तो वीतरागी क्षीणकषाय गुणस्थानवालोंको, केवलियोंको और सिद्धोंको भी सराग मानना पड़ेगा; क्योंकि उनके क्षायिकसम्यक्त्व ही होता है। रह जाता है द्वितीयोपशम सम्यक्त्व । इसमें दर्शन मोहनीयका उपशम रहता है इसलिए क्षायिकसम्यक्त्वकी अपेक्षा इसकी स्थिति कमजोर होनेसे इसे रागका कारण मानकर यदि सरागसम्यक्त्व माना जायेगा तो ग्यारहवें गुणस्थानको वीतरागछद्मस्थ न मानकर सरागछद्मस्थ मानना होगा। शायद कहा जाये कि ग्यारहवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका साहाय्य न मिलनेसे उपशम सम्यक्त्व रागका कारण नहीं है तो चारित्रमोहनीयको ही रागका कारण क्यों नहीं मानते ? अतः बेचारे सम्यग्दर्शनको, जिसे शास्त्रोंमें प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जराका कारण बतलाया है, रागका कारण बतलाना उचित नहीं है । अतः क्षायिक और औपशमिक सम्यक्त्वको सरागताका कारण नहीं माना जा सकता। शायद कहा जाये कि सम्यग्दर्शनके होनेपर देव, शास्त्र, गुरुमें शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति होती है अतः सम्यग्दर्शन शुभरागका कारण है । किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन होनेसे पहले भी उस जीवमें राग पाया जाता था। सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेसे एक तो उसमें कुछ रागकी कमी हुई, दूसरे उसका आलम्बन बदल गया, जहाँ वह पहले स्त्री-पुत्रादिकके मोहमें ही पड़ा रहता था वहाँ वह अब आत्महितके कारणोंसे राग करने लगा। अतः सम्यग्दर्शन रागका कारण नहीं हुआ बल्कि उसकी हीनताका और उसकी प्रवृत्तिको बदलनेका ही कारण हुआ । इसीसे पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें आचार्य अमृतचन्द्र सूरिने कहा है कि-'जितने अंशमें जीव सम्यग्दृष्टि है उतना अंश बन्धका कारण नहीं है और जितने अंशमें उसके राग है उतने अंशमें उसके कर्मबन्ध होता है। अतः अबन्धका कारण सम्यग्दर्शन रागका कारण नहीं हो सकता । अब रहा दूसरा प्रश्न कि क्या सम्यग्दर्शन वीतरागताका कारण है ? किसी अंशमें सम्यग्दर्शनको वीतरागताका कारण माना जा सकता है, क्योंकि दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धीका क्षय अथवा उपशम या क्षयोपशम होनेसे आत्मामें रागकी हानि ही होती है, वृद्धि नहीं । किन्तु ऐसी अवस्थामें सम्यग्दर्शनके दो भेद नहीं बन सकते। इस आपत्तिसे बचनेके लिए यदि उसे दोनोंका कारण माना जायेगा तो दोनों पक्षोंमें ऊपर उठाये गये विवाद खड़े हो जायेंगे। अतः सरागीके सम्यग्दर्शनको सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागीके सम्यग्दर्शनको वीतरागसम्यग्दर्शन कहना ही ठीक है । सम्यग्दर्शन आत्माका धर्म है अतः वह इन्द्रियोंसे दिखायी दे सकनेवाली वस्तु नहीं है । किन्तु