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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० २४६नात्मा कर्म न कर्मात्मा तयोर्यन्महदन्तरम् । तदात्मैव तदा सत्ता वात्मा व्योमेव केवलम् ।।२४६।। क्लेशाय कारणं कर्म विशुद्ध स्वयमात्मनि । नोष्णमम्बु स्वतः किन्तु तदौष्ण्यं वह्निसंश्रयम् ॥२४७॥ आत्मा कर्ता स्वपर्याये कर्म कर्तृ स्वपर्यये । मिथो न जातु कर्तृत्वमपरत्रोपचारतः ॥२४८॥ स्वतः सर्वे स्वभावेषु सक्रियं सचराचरम् । निमित्तमात्रमन्यत्र वागतेरिव सारिणिः ॥२४॥
उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है, अनेक प्रकृतियोंका बन्ध रुक जाता है और अनेकोंके स्थिति अनुभागका ह्रास या क्षय हो जाता है। तभी तो प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनके साथसाथ स्वरूपाचरण चारित्र भी बतलाया है जोकि शुद्धात्मानुभवका अविनाभावी है। और शुद्धास्मानुभव सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होता । अतः भेद-दृष्टि के कारण जो सम्यग्दर्शन व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है उसमें भी आत्मविनिश्चिति, आत्मानुभव और आत्मस्थिति रहती ही है। किन्तु चारित्रमोहनीय आदिके कारण उनमें स्थिरता न आ सकनेसे वे तीनों एक आत्मरूप नहीं हो पाते।
[अब आत्मा और कर्मका सम्बन्ध कैसा है यह स्पष्ट करते हैं-] ___ न आत्मा कर्म है और न कर्म आत्मा है; क्योंकि दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर है । अतः मुक्तावस्थामें केवल आत्मा ही रहता है और वह शुद्ध आकाशकी तरह है ॥२४६॥
आत्मा स्वयं विशुद्ध है और कर्म उसके क्लेशका कारण है । जैसे जल स्वयं गरम नहीं होता; किन्तु आगके सम्बन्धसे उसमें गरमी आ जाती है ॥२४७॥
आत्मा अपनी पर्यायका कर्ता है और कर्म अपनी पर्यायका कर्ता है । उपचारके सिवा दोनों परस्परमें एक दूसरेके कर्ता नहीं हैं। अर्थात् उपचारसे आत्माको कर्मका और कर्मको आत्माका कर्ता कहा जाता है परन्तु वास्तवमें दोनों अपनी-अपनी पर्यायोंके ही कर्ता हैं । समस्त चराचर विश्व स्वयं अपने स्वभावका कर्ता है, दूसरे तो उसमें निमित्त मात्र हैं। जैसे जलमें स्वयं बहनेकी शक्ति है, किन्तु नाली उसके बहनेमें निमित्त मात्र है ॥२४८-२४९॥
भावार्थ-आत्मा और कर्म ये दोनों दो स्वतन्त्र पदार्थ हैं। आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है। अतः न चेतन जड़ हो सकता है और न जड़ चेतन हो सकता है । किन्तु दोनों पदार्थोंमें एक वैभाविकी नामकी शक्ति है । इस वैभाविकी शक्तिके कारण परका निमित्त मिलनेपर वस्तुका विभावरूप परिणमन होता है। इसीसे अनादि कालसे जीव कर्मोसे बँधा हुआ है। जब
१. आत्मकर्मणोः। २. महान् भेदः । ३. तत्कारणात् । 'तदात्मवं'-अ. ज.। ४. वात्माद्योमेव अ० ज० । अद्य इदानीं केवलमात्मा उमेव (?) अंगीकृतः अस्माभिः एव निश्चयेन । ५. किञ्चिदौष्ण्यं-आ० । ६. परस्परमात्मकर्मणोः कर्तृत्वं न, उपचाराद् व्यवहारात् अन्यत्र परस्परं कर्तृत्वं भवति न च निश्चयात् । 'आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥५६॥' -समयसार पृ० १४१ । ७. जलगमनस्य ।