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उपासकाम्ययन
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शानमेकं पुन:धा पबधा वापि तद्भवेत् । अन्यत्र केवलवानाचस्पत्येकमनेकधा ॥२६१॥
ज्ञानका दोष नहीं है किन्तु जाननेवालेका दोष है। असलमें ज्ञान दो कारणोंसे मिथ्या होता है एक बहिरा कारणसे और दूसरे अन्तरा कारणसे । आँखोंमें खराबी होने या अन्धकार होनेसे जो कुछका-कुछ दिखायी दे जाता है वह बहिरङ्ग कारणोंकी खराबी या कमीसे होता है । किन्तु बहिरंग कारणोंके ठीक होते हुए भी और वस्तु को जैसाका-तैसा जाननेपर भी अन्तरङ्गमें मिथ्यात्वका उदय होनेसे भी ज्ञाताका ज्ञान मिथ्या होता है। जैसे नशीली वस्तुओंके सेवनसे मनुष्यका मस्तिष्क विकृत हो जाता है और उसकी आँखें खुली होने तथा प्रकाश वगैरहके होनेपर भी वह कुछका-कुछ जानता है । वैसे ही मिथ्यात्वका उदय होते हुए ज्ञानी मनुष्यका चित्त भी आत्मकल्याणकी ओर न झुककर राग-रंगकी ओर ही झुकता है। जो वस्तुएँ उसे रुचती हैं उनसे वह राग करता है और जो वस्तुएँ उसे नहीं रुचती उनसे द्वेष करता है। चूंकि वह ज्ञानी है इस लिए जब वह वस्तुस्वरूपका विवेचन करने खड़ा होता है तो यथावत् विवेचन कर जाता है। किन्तु जब स्वयं उन वस्तुओंमें प्रवृत्ति करता है तो उसकी प्रवृत्ति राग-द्वेषके रंगमें रंगी होती है। एक ही मनुष्यका यह दो तरहका व्यवहार इस बातको सूचित करता है कि यह ज्ञानकी खराबी नहीं है, वह तो अपना काम कर चुका । उसका काम तो इतना ही है कि वस्तुका जैसाका-तैसा ज्ञान करा दे सो वह करा चुका । किन्तु ज्ञातामें जो खराबी है वह खराबी ही ज्ञानके किये-कराये पर मिट्टी फेर देती है। उसीके कारण वह जानते हुए भी नहीं जानता और देखते हुए भी नहीं देखता। अतः ज्ञान वास्तवमें तभी सम्यग्ज्ञान होता है जब ज्ञातामें-से मिथ्यात्व बुद्धि दूर हो जाये । जैसे नशेके दूर होते ही मनुष्यकी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं और वह हल्कापन तथा जागरूकताका अनुभव करता है। वैसे ही मिथ्यात्वका नशा दूर होते ही मनुष्यका वही ज्ञान कुछका-कुछ हो जाता है और तब वह वस्तुके यथावत् स्वरूपका अनुभव करता है वही अनुभव सम्यग्ज्ञान है।
ज्ञानके मेद सामान्यसे ज्ञान एक है। प्रत्यक्ष परोक्षके भेदसे वह दो प्रकारका है। तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःर्यय और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका है। केवलज्ञानके सिवा अन्य चार ज्ञानोंमें से प्रत्येकके अनेक भेद हैं ॥२६१॥
भावार्थ-जो जाने उसे ज्ञान कहते हैं। इस अपेक्षासे सभी ज्ञान एक हैं क्योंकि सभी जानते हैं। किन्तु यह जानना भी अपने-अपने कारणोंकी अपेक्षासे तथा विषयकी स्पष्टता या अस्पष्टताकी अपेक्षासे अनेक प्रकारका हो जाता है। जो ज्ञान इन्द्रिय वगैरहकी सहायताके बिना केवल आत्मासे ही होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। ऐसे ज्ञान तीन हैं-अवधि, मनःपर्यय और केवल । तथा जो ज्ञान इन्द्रिय, मन वगैरहकी सहायतासे होता है उसे परोक्ष कहते हैं । ऐसे ज्ञान दो हैं-मति और श्रुत । जो ज्ञान पाँच इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान है। मति जानके भी चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अवग्रहके दो भेद ह-व्यंजनावग्रह और बर्थावग्रह । प्राप्त अर्थके प्रथम ग्रहणको व्यंजनावग्रह और प्राप्त तथा अप्राप्त अर्थके प्रथम