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उपासकाध्ययन
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स मूर्खः स जडः सोऽशः स पशुश्च पशोरपि। योऽश्नन्नपि फलं धर्माद्धर्मे भवति मन्दधीः ॥ २८६ ॥ स विद्वान्स महाप्राज्ञः स धीमान्स च पण्डितः । यः स्वतो वान्यतो वापि नाधर्माय समीहते ॥ २८७ ॥ तत्स्वस्य हितमिच्छन्तो मुश्चन्तश्चाहितं मुहुः । अन्यमांसैः स्वमांसस्य कथं वृद्धिविधायिनः ॥२८॥ यत्परत्र करोतीह सुखं वा दुःखमेव वा। वृद्धये धनवहत्तं स्वस्य तज्जायतेऽधिकम् ।।२८६॥ मद्यमांसमधुप्रायं कर्म धर्माय चेन्मतम् । अधर्मः कोऽपरः किं वा भवेद् दुर्गतिदायकम् ॥२६०।। सधर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाशानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥२६॥ स्वकीयं जीवितं यद्वत्सर्वस्य प्राणिनः प्रियम् ।
तदेतत्परस्यापि ततो हिंसां परित्यजेत् ॥२६२।। और जीते हुए भी मृत है ॥२८५॥ तथा जो धर्मका फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करनेमें आलस्य करता है वह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशुसे भी गया बीता है ॥२८६॥ और जो न स्वयं अधर्म करता है और न दूसरोंसे अधर्म कराता है वह विद्वान् है, बड़ा समझदार है, बुद्धिमान् है और पण्डित है ॥२८७॥ जो अपना हित चाहते हैं और अहितसे बचते हैं वे दूसरोंके मांससे अपने मांसकी वृद्धि कैसे करते हैं ॥२८८॥ जैसे दूसरेको दिया हुआ धन कालान्तरमें ब्याज के बढ़ जानेसे अपनेको अधिक होकर मिलता है वैसे ही मनुष्य दूसरेको जो सुख या दुःख देता है, वह सुख या दुःख कालान्तरमें उसे अधिक होकर मिलता है। अर्थात् सुख देनेसे अधिक सुख मिलता है और दुःख देनेसे अधिक दुःख मिलता है ॥२८९॥ यदि मद्य, मांस और मधुका सेवन करना धर्म है तो फिर अधर्म क्या है और कौन दुर्गतिका कारण है ? ॥२९०॥ धर्म वही , है जिसमें अधर्म नहीं है । सुख वही है जिसमें दुःख नहीं है। ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान नहीं . है और गति वही है जहाँसे लौटकर आना नहीं है ॥२९१॥
जिस प्रकार सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है उसी तरह दूसरोंको भी अपना जीवन प्रिय है । इस लिए हिंसाको छोड़ देना चाहिए ॥२९२॥ १. भुजन् । 'स विद्वान् स महामान्यः स धीमान तत्वधीधनः।
योऽश्नन्नपि फलं धर्माद् धर्मे भवति तत्परः ॥१७॥'-प्रबोधसार । २. 'यः स्वतोऽन्यतो वापि नाधर्माय समीहते ।
विश्वत्रयशिरोरत्नं तं पुमांसं विदुर्बुधाः ॥१८॥'-प्रबोधसार । - 'यः स्वतो....... । स एव विदुषामाद्यो विपरीतं चरन् जडः ॥४॥'-धर्मर०, पृ० ७८ उ.। ३. 'मद्यमांसमधुप्रायं यदि धर्माय सम्मतम् । साधनं तहि पापस्य हतं नास्तीह भूतले ॥२१॥'-प्रबोधसार। ४. यह श्लोक आत्मानुशासनका ( ४६वां श्लोक ) है। ५. प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा ।
आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ॥२३६॥-सुभाषितरत्न० पृ० २५२ । इष्टो यथात्मनो देहः सर्वेषां प्राणिनां तथा । एवं ज्ञात्वा सदा कार्या दया सर्वासुधारिणाम् ।।१८६।-पद्मपुराण १४ पर्व ।