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-२५] भवति चात्र श्लोकः
एकस्मिन्बासरे मद्यनिवृत्तधूर्तिलः किल ।
एतदोषारसहायेषु मृतेष्वापदनापदम् ॥ २७ ॥ इत्युपासकाध्ययने मद्यनिवृत्तिगुणनिदानो नाम त्रयोविंशतितमः कल्पः ।
स्वभाषाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् ॥ २७६ ॥ कर्माहत्यमपि प्राणी करोतु यदि चात्मनः । हन्यमानविधिन स्यादन्यथा वा न जीवनम् ॥ २८० ॥ धर्माच्छर्मभुजां धर्मे किन्नु विशेषकारणम् । प्रार्थितार्थप्रदं द्वेष्टु को नामामरपावपम् ।। २८१ ॥ अल्पात्यलेशात्सुखं सुष्टु सुधीश्चत्स्वस्य वाञ्छति ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ २८२ ॥ *स सुखं सेवमानोऽपि जन्मान्तरसुखाश्रयः। यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः ॥२८३॥
उक्त कथाके सम्बन्धमें एक श्लोक है, जिसका भाव इस प्रकार है
“जब कि मद्यपानके दोषसे अन्य साथी चोर मर गये तब एक दिनके लिए शराबका त्याग कर देनेसे धूर्तिल चोर बच गया" ॥२७८॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें मद्यत्यागके गुणोंको बतलानेवाला तेईसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
मांस निषेध मांस स्वभावसे ही अपवित्र है, दुर्गन्धसे भरा है, दूसरोंकी जान ले-लेनेपर तैयार होता है, तथा कसाईके घर-जैसे दुस्थानसे प्राप्त होता है। ऐसे मांसको भले आक्मी कैसे खाते हैं? ॥२७९॥ यदि जिस पशुको मांसके लिए हम मारते हैं, दूसरे जन्ममें वह हमें न मारे वा मांसके बिना जीवन ही न रह सके तो प्राणी नहीं करने योग्य पशु-हत्या भले ही करे । किन्तु ऐसी बात नहीं है। मांसके बिना भी मनुष्योंका जीवन चलता ही है ॥२८०॥
धर्मसे सुख भोगनेवाले न जाने धर्मसे द्वेष क्यों करते हैं ? इच्छित वस्तुको देनेवाले कल्पवृक्षसे कौन द्वेष करता है ।२८१॥ यदि बुद्धिमान् पुरुष थोड़ेसे कष्टसे अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें उन कामोंको दूसरोंके प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए ॥२८२॥ - जो दूसरोंका घात न करके सुखका सेवन करता है वह इस जन्ममें भी सुख भोगता है और दूसरे जन्ममें भी सुख भोगता है ॥२८३॥ [धर्मस्लाकरके पाठके अनुसार दूसरा अर्थ यह भी
१. प्राप्तवान् । २. दुःस्थाने शूनाकारगृहे लभ्यम् । ३. भक्षयन्ति । ४. यथा पशुहत: तथा पश्चाच्चेत्स पशु : तस्य हिंसकस्य न हिनस्ति, अथवा चेन्मांसं विनाऽन्यः कोऽपि जीवनोपायो नास्ति चेदन्नफलादिकं वर्तते तहि मांसं कथं भक्ष्यते । ५. को द्वेपं करोतु। ६. 'श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चवावधारयेत् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥'-महाभारत। ७. 'यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः । स मुखं सेवमानोऽपि जन्मान्तरासुखाश्रयः' ।-धर्मरत्नाकर, पृ० ७८ ।