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-२६५] उपासकाध्ययन
१२७ अधर्मकर्मनिर्मुक्तिधर्मकर्मविनिर्मितिः। चोरित्रं तव सागारानगारयतिसंश्रयम् ॥२६२॥ देशतः प्रथमं तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् । चारित्रं चारुचारित्रविचारोचितचेतसाम् ॥२६३॥ देशतः सर्वतो वापि नरो न लभते व्रतम् । स्वर्गापवर्गयोर्यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ॥२६॥ तुण्डकण्डूहरं शास्त्रं सम्यक्त्वविधुरे नरे ।
ज्ञानहीने तु चारित्रं दुर्भगाभरणोपमम् ॥२६॥ देशावधि परमावधि और सर्वावधि ,संयमी मनुष्यके ही होते हैं। मति श्रुत और अवधि विपरीत भी होते हैं और उन्हें कुमति, कुश्रुत और कुअवधि या विभङ्ग कहते हैं। अपने या दूसरोंके मनमें स्थित अर्थको जो बिना किसी अन्यकी सहायताके प्रत्यक्ष जानता है उसे मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान संयमी पुरुषोंके ही होता है । उसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति । जो सरल मनके द्वारा बिचारे गये, सरल वचनके द्वारा कहे गये और सरल कायके द्वारा किये गये मनोगत अर्थको जानता है उसे ऋजुमति मनःपर्यय कहते हैं। जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा ही चिन्तवन करना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना, सरल मन, सरल वचन और सरल काय है। सरल मन वचन कायके द्वारा अथवा कुटिल मन वचन कायके द्वारा बिचारे गये, कहे गये या किये गये मनोगत अर्थको जो प्रत्यक्ष जानता है उसे विपुल मति मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । जो बिना किसी अन्यकी सहायताके आत्मासे ही सचराचर विश्वको एक साथ प्रत्यक्ष जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं । यह केवलज्ञान अर्हन्त अवस्थाके साथ ही प्रकट होता है । इसका कोई भेद नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान पूर्ण है।
सम्यक्चारित्रका स्वरूप तथा मेद ___ बुरे कामोंसे बचना और अच्छे कामोंमें लगना चारित्र है । वह चारित्र गृहस्थ और मुनि के भेदसे दो प्रकारका है। गृहस्थोंका चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियोंका चारिक सकल चारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सदविचारोंसे युक्त हैं वे ही चारित्रका पालन कर सकते हैं। जिस मनुष्यमें स्वर्ग और मोक्षमें-से किसीको भी प्राप्त कर सकनेकी योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र ही पाल सकता है और न सकलचारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे रहित है उसका शास्त्र वाचन मुखकी खाज मिटानेका एक साधनमात्र है। और जो मनुष्य ज्ञानसे रहित है उसका चारित्र धारण करना अभागे मनुष्यके आभूषण धारण करनेके समान है ॥२६२-२६५॥
भावार्थ-बिना सम्यग्दर्शनके शास्त्राभ्यास-ज्ञानार्जन व्यर्थ है और बिना ज्ञानके चारित्रका पालन करना व्यर्थ है ।
१. 'असुहादो विणिवित्ति सुहे पवती य जाण चारितं' ।-द्रव्यसंग्रह । २. सकलं विकलं घरणं तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ ५० ॥-'रत्नकरण्ड श्रा० । ३. स्वर्गमोक्षयोर्मध्ये यस्य जीवस्य एकस्यापि योग्यता न भवति, तस्य अणुव्रतं महाव्रतं च न भवति । 'अणुवय-महन्वयाई न लहइ देवाउअं मोत्तु ॥ २०१ ॥ पञ्चसंग्रह पृ० ४२ । ४. मुखखर्जन । ५. रहिते ।
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