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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो०-२६१ ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं। जो पदार्थ इन्द्रियोंसे सम्बद्ध होकर जाना जाता है वह प्राप्त अर्थ है
और जो पदार्थ इन्द्रियोंसे सम्बद्ध न होकर जाना जाता है वह अप्राप्त अर्थ है। चक्षु और मन अप्राप्त अर्थको ही जानते हैं । शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थोंको जानती हैं। प्राप्त अर्थमें व्यंजनावग्रहके बाद अर्थावग्रह होता है और अप्राप्त अर्थमें व्यंजनावग्रह न होकर अर्थावग्रह ही होता है। इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध होते ही जो अस्पष्ट ज्ञान होता है उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। और व्यंजनावग्रहके बाद जो स्पष्ट ज्ञान होता है कि 'यह शब्द है' उसे अर्थाअवह कहते हैं। जैसे मिट्टीके कोरे सकोरेपर जलके दो-चार छीटे देनेसे वह गीला नहीं होता किन्तु बार-बार बूंद टपकाते रहनेसे धीरे-धीरे वह गीला हो जाता है। वैसे ही शब्द भी कानमें एक बार आनेसे ही स्पष्ट नहीं हो जाता किन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट होता है। अतः अर्थावग्रह से पहले व्यंजनावग्रह होता है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थमें विशेष जाननेकी इच्छा रूप ज्ञानको ईहा कहते हैं। जैसे शब्द सुननेपर यह जाननेकी इच्छा होती है कि यह शब्द किसका है १ निर्णयात्मक ज्ञानको अवाय कहते हैं। जैसे यह शब्द अमुक पक्षीका है। और कालान्तरमें न भूलनेका कारण जो संस्काररूप ज्ञान होता है उसे धारणा कहते हैं । जिसके कारण कुछ कालके बाद भी यह स्मरण होता है कि मैंने अमुक पक्षीका शब्द सुना था। इस प्रकार चूंकि व्यंजनावग्रह केवल चार इन्द्रियोंसे ही होता है इस लिए उसके चार भेद हैं। तथा अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा पाँचों इन्द्रियों और मनसे होते हैं । इस लिए उनके चौबीस - भेद हुए। ये सब मिलाकर मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। तथा ये अट्ठाईस मतिज्ञान बहु
आदि बारह प्रकारके पदार्थोंके होते हैं। इसलिए मतिज्ञानके तीन-सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं । मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थका अवलम्बन लेकर जो विशेष ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। उसके दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । श्रोत्रेन्द्रियके सिवा शेष चार इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं और श्रोत्रेन्द्रियजन्य मति ज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है उसे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं। इन श्रुतज्ञानोंके क्षयोपशमकी अपेक्षा बीस भेद और हैं। तथा ग्रन्थकी अपेक्षा श्रुतज्ञानके दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । तीर्थकर भगवान्की दिव्यध्वनिको सुनकर गणधरदेव उसका अवधारण करके जो आचाराङ्ग आदि बारह अंग रचते हैं वे अंगप्रविष्ट कहे जाते हैं। और काल दोषसे मनुप्योंकी आयु तथा बुद्धि कम होती हुई देखकर आचार्य वगैरह जो ग्रन्थ रचते हैं उन्हें अंगबाह्य कहते हैं। इस तरह ग्रन्थात्मक श्रुतके बारह और चौदह भेद हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लेकर मूर्तिक पदार्थको प्रत्यक्ष जाननेवाले ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । यद्यपि दोनों ही प्रकारके अवधिज्ञान अवधि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके होनेपर ही होते हैं। फिर भी जो क्षयोपशम भवके निमित्तसे होता है उससे होने वाले अवधिज्ञानको भवप्रत्यय कहते हैं और जो क्षयोपशम सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे होता है उससे होनेवाले अवधिज्ञानको गुणप्रत्यय कहते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है। विषय आदिकी अपेक्षासे अवधिज्ञानके देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद किये जाते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि रूप ही होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों रूप होता है। उत्कृष्ट