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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० २५२पुण्यायापि भवेद् दुःखं पापायापि भवेत्सुखम् । स्वस्मिन्यत्र वा नीतमचिन्त्यं वित्तवेष्टितम् ॥२५२॥ सुखदुःखाविधातापि भवेत्पापसमाश्रयः।
पेटीमध्यविनिक्षिप्तं वासः स्यान्मलिनं न किम् ॥२५३॥ भावार्थ-*प्रमादके योगसे प्राणोंके घात करनेको हिंसा कहते हैं। जैन धर्मके अनुसार अपनेसे किसीके प्राणोंका घात हो जाने मात्रसे ही हिंसा नहीं होती। संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी हैं, किन्तु फिर भी उसे जैन धर्म हिंसा नहीं कहता । क्योंकि हिंसा दो प्रकारसे होती है एक कषायसे यानी जान-बूझकर और दूसरे अयत्नाचार या असावधानीसे। जब एक मनुष्य क्रोध, मान, माया या लोभके वश होकर दूसरोंपर वार करता है तो वह कषायसे हिंसा कही जाती है और जब मनुष्यकी असावधानतासे किसीका घात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुंचता है तो वह अयत्नाचारसे हिंसा कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख-भालकर कार्य करता है और उस समय उसके चित्तमें कोई कषाय भी नहीं है फिर भी यदि उसके द्वारा किसीको वध हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा जाता । जैसा कि शास्त्रकारोंने कहा है कि जो मनुष्य देख-देखके मार्गमें चल रहा है, उसके पैर उठाने पर यदि कोई जन्तु उसके पैरके नीचे आ जावे और दबकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मारनेका थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानतासे कार्य कर रहा है और उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हो रही है तब भी वह हिंसाका भागी है । जैसा कि शास्त्रकारोंने कहा है कि 'जीव मरे या जिये, असावधानतासे काम करनेवालों को हिंसाका पाप अवश्य लगता है। किन्तु जो यत्नाचारसे कार्य कर रहा है उसे हिंसा हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता' । वास्तवमें हिंसा रूप परिणाम ही हिंसा है। द्रव्य हिंसाको तो केवल इसलिए हिंसा कहा जाता है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। इसीलिए कहा है कि 'जो प्रमादी है वह प्रथम तो अपना ही घात करता है। बादको अन्य प्राणियोंका घात हो या न हो।' अतः जो दूसरोंको कष्ट पहुँचानेका प्रयत्न करता है वह अपने परिणामोंका ही घात करनेके कारण हिंसक है अतः वह पापका भागी है। और जो सावधान और अप्रमादी है वह दूसरेका घात हो जानेपर भी हिंसक नहीं है क्योंकि उसके परिणाम पवित्र हैं। इसीसे पण्डित आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृतमें लिखा है-'यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर निर्भर न होता तो जीवोंसे भरे हुए इस लोकमें कौन मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता।'
___अपनेको या दूसरेको दुःख देनेसे पुण्य कर्मका भी बन्ध होता है और सुख देनेसे पाप कर्मका भी बन्ध होता है। मनकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं। जो सुख और दुःखका अकर्ता है वह भी पापसे लिप्त हो जाता है। ठीक ही है, क्या सन्दूकमें रखा हुआ वस्त्र मैला नहीं हो जाता ।
१. 'पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥' पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ॥ ९ ॥आप्तमीमांसा । तपः कष्टादिकं तदपि विरुद्धमाचरितं कदाचित पापाय भवति तेन एकान्तं नास्ति ।
इस भावार्थमें जो शास्त्रकारोंके मत दिये गये हैं उनके लिए सर्वार्थसिद्धि अ०७, सू०१३ की टोका देखें।