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उपासकाध्ययन
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और निश्चयके ज्ञाता ही जगत्में धर्मतीर्थका प्रवर्तन करते हैं। और जो केवल व्यवहारको ही जानता है वह उपदेशका पात्र नहीं है क्योंकि जैसे किसी बच्चेमें शूर-वीरता, निर्भयता आदि धर्मोको देखकर किसीने कहा कि 'यह बच्चा तो शेर है'। जो आदमी शेरको नहीं जानता वह समझ बैठता है कि यही शेर है। वैसे ही निश्चयको न जाननेवाला व्यवहारको ही निश्चय समझ बैठता है। किन्तु जो व्यवहार और निश्चय दोनोंको जानकर दोनोंमें मध्यस्थ रहता है, दोनोंमें से किसी एक नयका ही पक्ष पकड़कर नहीं बैठ जाता वही शिप्य या श्रोता उपदेशका पूरा लाभ उठाता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनोंको समझना आवश्यक है । वस्तुके असली स्वरूपको निश्चय कहते हैं, जैसे मिट्टीके घड़ेको मिट्टीका घड़ा कहना । और परके निमित्तसे वस्तुका जो औपचारिक या उपाधिजन्य स्वरूप होता है उसे व्यवहार कहते हैं । जैसे मिट्टीके घड़ेमें घी भरा होनेके कारण उसे घीका घड़ा कहना । अतः चूंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आत्मस्वरूप ही हैं, अतः आत्माका विनिश्चय ही निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्माका ज्ञान ही निश्चय सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें स्थित होना ही निश्चय सम्यकचारित्र है। किन्तु आत्म-स्वरूपका विनिश्चय तबतक नहीं हो सकता जबतक आत्मा और कोंके मेलसे जिन सात तत्त्वोंकी सृष्टि हुई है उनका तथा उनके उपदेष्टा देव, शास्त्र और गुरुओंका श्रद्धान न हो, क्योंकि परम्परासे ये सभी आत्म-श्रद्धानके कारण हैं। इनपर श्रद्धान हुए बिना इनकी बातोंपर श्रद्धान नहीं हो सकता और इनकी बातोंपर श्रद्धान हुए बिना आत्माकी ओर उन्मुखता, उसकी पहचान
और विनिश्चिति उत्तरोत्तर नहीं हो सकती। यही बात सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमें जाननी चाहिए । वास्तवमें देव शास्त्र गुरु और उनके द्वारा उपदिष्ट सात तत्त्वोंका श्रद्धान और ज्ञान इसीलिए आवश्यक है क्योंकि वह आत्मश्रद्धान और आत्मज्ञानमें निमित्त है । इन सबके श्रद्धान और ज्ञानका लक्ष्य आत्मश्रद्धान और आत्मज्ञान ही है। इसी तरह आत्मामें स्थिति तस्तक नहीं हो सकती जबतक उसकी प्रवृत्ति बहिर्मुखी है। अतः उसकी प्रवृत्तिको अन्तर्मुखी करनेके लिए पहले उसे बुरी प्रवृत्तियोंसे छुड़ाकर अच्छी प्रवृत्तियोंमें लगाया जाता है। जब वह उनका अभ्यस्त हो जाता है तब धीरे-धीरे उनका भी निरोध करके उसे प्रवृत्तिमार्गसे निवृत्तिमार्गकी ओर लगाया जाता है । होते-होते वह उस स्थितिमें पहुँच जाता है जहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका विषय केवल आत्मा ही रह जाता है और समस्त परावलम्ब विलीन हो जाते हैं । यही निश्चयरूप रत्नत्रय है। किन्तु बिना व्यवहारका अवलम्बन किये इस निश्चयकी प्रतीति नहीं हो सकती । अतः अजानकारोंको समझानेके लिए व्यवहारका उपदेश दिया जाता है और व्यवहारके द्वारा निश्चयकी प्रतीति करायी जाती है। जबतक जीव सरागी रहता है तबतक वह व्यवहारी रहता है, ज्यों-ज्यों उसका राग घटता जाता है त्यों-त्यों वह व्यवहारसे निश्चयकी ओर आता जाता है
और ज्यों-ज्यों वह निश्चयकी ओर आता-जाता है त्यों-त्यों उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र व्यवहारसे निश्चयका रूप लेते जाते हैं। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चौथे आदि गुणस्थानों में जो सम्यक्त्व होता है उसमें आत्मविनिश्चिति, आत्मबोध और आत्मस्थिति कतई रहती ही नहीं, यदि ऐसा हो तो उसे सम्यक्त्व ही नहीं कहा जायेगा। दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय जैसी प्रकृतियोंका उपशम क्षयोपशम अथवा क्षय हो जाना मामूली बात नहीं है और उनके हो जानेसे जीवकी परिणतिमें आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है, उसीके कारण