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सोमदेव विरचित
[ कल्प २१, श्लो० - २३४
अस्यायमर्थः – भगवदर्हत्सर्वशप्रणीतागमानुशोसंज्ञा आज्ञा, रत्नत्रयविचारसर्गो मार्गः, पुराणपुरुषचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेशः, यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम्, सकलसमयदलसूचनाव्याजं बीजम् श्राप्तश्रुतव्रत पदार्थसमासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णश्रुतार्थ समर्थन प्रस्तारो विस्तारः, प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः, त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतोऽन्यतमदेशावगाहाली ढमवगाढम् अवधिमनः पर्ययकेवलाधिक पुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् ।
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संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगादसम्यक्त्व ये सम्यक्त्वके दस भेद हैं ॥२३४॥
इनका स्वरूप इस प्रकार है - भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्तदेवके द्वारा उपदिष्ट आगमकी आज्ञाको ही प्रमाण मानकर जो श्रद्धान किया जाता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं । रत्नत्रय रूप मोक्षके मार्गका कथन सुनकर जो श्रद्धान हो उसे मार्गसम्यक्त्व कहते हैं । तीर्थङ्कर बलदेव आदि पुराणपुरुषोंके चरितको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं । मुनिजनोंके आचारका कथन करनेवाले आचाराङ्गसूत्रको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे सूत्रसम्यक्त्व कहते हैं । जिस पदमें सूचन रूपसे समस्त शास्त्रोंके अंश छिपे होते हैं उसे बीज कहते हैं। बीज पदको समझकर सूक्ष्म तत्वोंके ज्ञानपूर्वक जो श्रद्धान होता है, उसे बीजसम्यक्त्व कहते हैं । संक्षेपसे आप्त, श्रुत, व्रत और पदार्थोंको जानकर उनपर जो श्रद्धान उसे संक्षेपसम्यक्त्व कहते हैं। बारह अंगों, चौदह पूर्वो और अङ्गबाह्योंके द्वारा विस्तार से तस्वार्थको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यक्त्व कहते हैं । प्रवचनके वचनों की सहायता के बिना किसी अन्य प्रकारसे जो अर्थका बोध होकर श्रद्धान होता है उसे अर्थसम्यक्त्व कहते हैं । अङ्ग, पूर्व और प्रकीर्णक आगमोंके किसी एक देशका पूरी तरहसे अवगाहन करनेपर जो श्रद्धान होता है उसे अवगाढसम्यक्त्व कहते हैं । और अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानके द्वारा जीवादि पदार्थोंको जानकर जो प्रगाढ़ श्रद्धान होता है उसे परमावगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं ।
होता है
१. " आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरचितं वीतरागाज्ञयैव, त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन् मोहशान्तेः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवर-पुराणोपदेशोपजाता
या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशा दिरादेशि दृष्टिः ॥ १२ ॥ आकर्ण्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः, सूक्ताऽसौ सूत्रदृष्टिर्दुरधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्चिज्जातोपलब्धे रसमशमवशाद् बीजदृष्टिः पदार्थात्, संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥ १३ ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टि, संजातार्थात् कुतश्चित् प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्य प्रवचनमवगाहोत्थिता यावगाढा,
कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा || १४ || - आत्मानुशासन ।
२ - ' नुज्ञा आज्ञा' - धर्मरत्नाकरे ( पृ० ६८ उ० ) पाठ: । ३ - लापोपक्षेपः, धर्मरत्नाकरे ( पृ० ६८ उ० )
पाठः । ४- प्रकीर्णकभेदविस्तीर्ण, धर्मरत्नाकरे ( पृ० ६८ उ० ) पाठः | ५ - द्वादशाङ्ग चतुर्दश पूर्व-प्रकीर्णकभेदेन ।