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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० -२३७ हेष्टिहीनः पुमानेति न यथा पदमीप्सितम् । दृष्टिहीनः पुमानेति न तथा पदमीप्सितम् ॥२३७।। सम्यक्त्वं नागहीनं स्याद्राज्यवत्प्राज्यभूतये । ततस्तदङ्गसंगत्यामङ्गी निःसंगमीहताम् ॥२३८॥ विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते कुतः। . नहि बीजव्यपायेऽस्ति सस्यसम्पत्तिरङ्गिनि ॥२३६ ॥ चक्रिश्रीः संश्रयोत्कण्ठा नाकिश्रीदर्शनोत्सुका। तस्य दूरे न मुक्तिश्रीनिर्दोषं यस्य दर्शनम् ॥२४०॥
होगी, अखबारोंमें गुणगान होगा, मेरी साख बढ़ेगी और फिर मेरा व्यापार चमक उठेगा, उनका उपवास, ब्रह्मचर्य और दान स्तुत्य नहीं कहे जा सकते । व्रत भोगोंकी चाहका नियन्त्रण करनेके लिए ही बतलाये गये हैं, जिससे व्रतीकी आत्मा सबल हो। यदि कोई व्रतोंके द्वारा भी भोगोंकी तृष्णाकी ही पूर्ति करना चाहता है तो यह उसकी नासमझी है । इसी तरह यदि कोई व्रताचरण करते हुए भी मिथ्यात्वसे ग्रस्त है तो उसका व्रताचरण व्यर्थ है, क्योंकि जो सन्मार्गपर पैर रखकर भी कुमार्गको छोड़ना नहीं चाहता वह सन्मार्गपर कभी चल ही नहीं सकता। अतः उक्त तीनों शल्योंके होते हुए व्रताचरणका ढोंग रचा जा सकता है, व्रताचरण नहीं किया जा सकता । इसलिए उन्हें दूर कर देना आवश्यक है।
सम्यग्दर्शनकी महिमा जैसे दृष्टि अर्थात् आँखोंसे हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता । वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शनसे हीन पुरुष मुक्तिलाभ नहीं कर सकता ॥२३७॥
जैसे राज्यके अङ्ग मन्त्री सेनापति वगैरहके बिना राज्य समृद्धिशाली नहीं हो सकता, वैसे ही निःशङ्कित आदि अङ्गोंके बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यन्तर और बाह्य विभूतिको नहीं दे सकता। इसलिए प्राणीको चाहिए कि सम्यग्दर्शनके अङ्गोंको प्राप्त करके निःसंग-- निर्ग्रन्थ दिगम्बर हो जानेकी कामना करे ॥२३८॥
सम्यक्त्वसे रहित प्राणीमें सम्यग्ज्ञान वगैरह कैसे हो सकते हैं ? बीजके अभावमें धान्य सम्पत्ति नहीं होती। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है , चक्रवर्तीकी विभूति उसका आलिंगन करनेके लिए उत्कण्ठित रहती है और देवोंकी विभूति उसके दर्शनके लिए उत्सुक रहती है । अधिक क्या, मोक्षलक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ॥२३९-२४०॥
१. नेत्र । २. सम्यग्दर्शन । 'दृशाहीनः पुमानेति न यथा स्थानमीप्तितम् । निर्दर्शनः पुमान् याति न तथा पदमीप्सितम् ॥ ६४ ॥-प्रबोधसार । ३. 'नाङ्गहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् ।-रत्न० श्रा। ४. अष्टाङ्गपर्णतायां सत्यां प्राणी निसंगं चारित्रं वाञ्छत् ।' ५. 'विद्यावत्तस्य संभतिस्थितिवद्धिफलोदयाः। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ ३२ ॥' - रत्नकरण्डश्रावकाचार । ६. देवेन्द्रचक्रमहिमानप्रमेयमानं राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपति भव्यः ॥४१॥ -रत्न० श्रा०।