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सोमदेव विरचित [कल्प २१, श्लो० २२८यद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राक्षाः समस्तवतभूषणम् ॥२२८॥ शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्वात् । स्वप्नेन्द्रजालसङ्कल्पाङ्गीतिः संवेग उच्यते ॥२२६॥ सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥२३०॥
असंयतसम्यग्दृष्टि वगैरह सरागी जीवोंमें प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य वगैरहको देखकर सम्यग्दर्शनका अस्तित्व जाना जा सकता है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर दसवें गुणस्थानतकके जीव अपनेमें सम्यक्त्वके निमित्तसे होनेवाले प्रशमादि गुणोंका निश्चय करके 'हम सम्यग्दृष्टि हैं' ऐसा जान लेते हैं। और चौथेसे छठे गुणस्थानतकके जीवोंमें उनकी चेष्टाओंसे प्रशमादिकका निर्णय करके 'वे सम्यग्दृष्टि हैं' ऐसा जानते हैं। इस प्रकार अपनेमें स्वसंवेदनसे और दूसरोंमें अनुमानसे सरागसम्यग्दर्शनके सद्भावका निश्चय किया जाता है, क्योंकि सम्यम्दृष्टिमें इस प्रकारके भाव देखे जाते हैं। किन्तु जिसमें इस प्रकारके भाव हों वह नियमसे सम्यग्दृष्टि ही है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शनके अभावमें भी इस प्रकारके भाव पाये जाते हैं । अतः प्रशमादि भाव सम्यग्दर्शनके ज्ञापक हैं, नियामक नहीं हैं.। इनके बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता किन्तु ये सम्यग्दर्शनके बिना भी हो सकते हैं। अब रहे उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागी जीव, उनका सम्यग्दर्शन वीतरागसम्यग्दर्शन कहलाता है, और वह सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप ही होता है। *दर्शनमोहनीयके उपशम अथवा क्षयसे आत्मामें जो निर्मलता होती है, उसे आत्मविशुद्धि कहते हैं, और वीतरागसम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप ही होता है, क्योंकि वीतरागी जीवोंमें चारित्र मोहनीयका उदय न होनेसे प्रशमादि भाव नहीं पाये जाते । अतः वीतरागसम्यग्दर्शनको स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही जाना जा सकता है प्रशमादिके द्वारा उसे नहीं जाना जा सकता।
[अब आस्तिक्य आदिका स्वरूप बतलाते हैं-]
रागादिक दोषोंसे चित्तवृत्तिके हटनेको पण्डित-जन प्रशम कहते हैं। यह प्रशमगुण समस्त व्रतोंका भूषण है अर्थात् व्रत वगैरहका पालन करते हुए भी यदि चित्त रागादिक दोषोंसे नहीं हटता तो वे व्रत एक तरहसे व्यर्थ ही हैं ॥२२८॥
__ यह संसार शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक कष्टोंसे भरा है और स्वप्न या जादूगरके तमाशेकी तरह चञ्चल है । इससे डरना संवेग है ॥२२॥
सब प्राणियोंके प्रति चित्तका दयालु होना अनुकम्पा है। दयाल पुरुष इसे धर्मका परम मूल बतलाते हैं ॥२३०॥
* 'आत्मनो जीवस्य शुद्धिगमोहस्योपशमेन क्षयेण वा जनितप्रसादः। सैव तन्मात्रं, न प्रशमादिचतुष्टयम् । तत्र हि चारित्रमोहस्य सहकारिणोऽपायान्न प्रशमाद्यभिव्यक्तिः स्यात् । केवलं स्वसंवेदनेनैव तद्वद्यत ।' अन० ध० टी० २-५१ ।