________________
-२३२]
१११
उपासकाभ्ययन प्राप्त श्रते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्ततम । मास्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे ॥२३१॥ रागरोषधरे नित्यं निर्वते निर्दयात्मनि । संसारो दीर्घसारैः स्यानरे नास्तिकनीतिके ॥२३२॥
मुक्तिके लिए प्रयत्नशील पुरुषका चित्त आप्तके विषयमें, शास्त्रके विषयमें, व्रतके विषयमें और तत्त्वके विषयमें 'ये हैं' इस प्रकारकी भावनासे युक्त होता है उसे आस्तिक पुरुष आस्तिक्य कहते हैं। जो मनुष्य रागी और द्वेषी है, कभी व्रताचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मामें दयाका भाव ही होता है उस नास्तिक धर्मवालेका संसारभ्रमण बढ़ता ही है ॥२३१-२३२॥
भावार्थ-राग, द्वेष, काम, क्रोध वगैरहकी ओर मनका रुझान न होना प्रशम कहलाता है । अथवा जिन्होंने अपना अपराध किया है, उन प्राणियोंको भी किसी प्रकारका कष्ट न देनेकी भावनाका होना भी प्रशम है। ऐसा प्रशम भाव अनन्तानुबन्धी कषायके उदयका अभाव होनेसे तथा शेष कषायोंका मन्द उदय होनेसे होता है। अतः वह सम्यक्त्वकी पहचान करानेमें सहायक है। किन्तु बिना सम्यक्त्वके जो प्रशम भाव देखा जाता है वह प्रशम नहीं है किन्तु प्रशमाभास है । संसार अनेक तरहकी यातनाओंका-तकलीफ़ोंका घर है। इसमें कोई भी सुखी नजर नहीं आता। किसीको किसी बातका कष्ट है तो किसीको किसी बातका कष्ट है । आज जो सुखी दिखायी देते हैं, कल उन्हें ही रोता और कलपता हुआ पाते हैं। ऐसे संसारसे मोह न करके सदा उससे बचते रहनेमें ही कल्याण है। इस प्रकारके भावोंका नाम संवेग है। धर्म, धर्मात्मा और धर्मके प्रवर्तक पञ्च परमेष्ठीमें मन तभी लग सकता है जब अधर्म, अधर्मी और अधर्मके सर्जकोंसे अरुचि हो । तथा इनमें अरुचि तभी हो सकती है जब मनुष्यका मन संसारकी विषय-वासनाओंसे हट गया हो । अतः संसारसे अरुचि रखनेमें ही आत्माका कल्याण है और इसीका नाम संवेग है । मगर वह अरुचि स्वाभाविक होनी चाहिए, बनावटी नहीं। विरागताकी लम्बी-चौड़ी बातें करके सिरसे पैरतक रागमें डूबे रहना संवेग नहीं है। जीवमात्रपर दया करनेको अनुकम्पा कहते हैं अर्थात् सबको अपना मित्र समझना और वैर-भावको छोड़कर निर्द्वन्द्व हो जाना अनुकम्पा है। सच्ची अनुकम्पा सम्यग्दृष्टिके ही होती है क्योंकि बिना अज्ञानके वैर-भाव नहीं होता। मनुष्य समझता है कि मैं चाहूँ तो अमुकको सुखी कर सकता हूँ और चाहूँ तो अमुकको दुःखी कर सकता हूँ। या मुझे अमुक सुख पहुँचा सकता है और अमुक दुःख पहुँचा सकता है । किन्तु उसका ऐसा समझना कोरा अज्ञान है, क्योंकि जिन जीवोंके प्रबल पुण्यका उदय होता है उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता और जिनके प्रबल पापका उदय होता है उनके हाथमें दिये गये रुपये भी कोयला हो जाते हैं। अतः प्राणियोंमें इष्ट और अनिष्टकी कल्पना करके किसीको अपना मित्र मानना और किसीको अपना शत्रु मानना अज्ञानता है । इसलिए सभीपर समान रूपसे दयाभाव रखना चाहिए। तथा दूसरोंपर दया करना एक तरहसे अपनेपर ही दया करना है
१. -मास्तिक्यसंयुतम् ।'-सागारधर्मामृत, पृ०६। २. 'युक्तं युक्तिधरेण वा'-सागारधर्मामृत १०६ । मोक्षसंयोगधरे-मुक्तिगामिनि । ३. भ्रमणः। ४. शास्त्रे ।