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-२२५] उपासकाभ्ययन
१०५ इत्यादिवत्तनिसर्गात्संजातमित्युच्यते । यदा त्वव्युत्पत्तिसंशीतिविपर्यस्तिसमधिकबोधस्याधिमुक्तियुक्तिसूक्तिसंबन्धसविधस्य प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगोपयोगावगायेषु समस्तेष्वैतिथेषु परीक्षोपक्षपादतिक्लिश्य निःशेषदुराशाविनिशाविनाशनांशुमन्मरीचिश्चिरेण तत्त्वेषु रुचिः संजायते, तदा विधातुरांयासहेतुत्वान्मया निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो हारो, मयेदं संपादित रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तदधिगमादाविर्भूतमित्युच्यते । उक्तं च
___“अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥२२५॥"--आप्तमीमांसा
और जब संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे ग्रस्त ज्ञानवाले मनुष्यके श्रद्धा, युक्ति और आगमके निकट होकर, प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगके द्वारा अवगाहन करनेके योग्य समस्त शास्त्रोंकी परीक्षा करनेका कष्ट उठाकर चिरकालके पश्चात् समस्त दुराशारूपी रात्रिके विनाशके लिए सूर्यकी किरणोंके समान तत्त्वरुचि उत्पन्न होती है, तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । क्योंकि जैसे मैंने यह हार बनाया है या मैंने यह रत्नखचित आभरण बनाया है, वैसे ही कर्ताके द्वारा विहित परिश्रमसे उत्पन्न हुए अधिगम-ज्ञानसे वह प्रकट होता है ।
कहा भी है
'बुद्धिपूर्वक प्रयत्नके विना अचानक जो इष्ट या अनिष्ट होता है वह अपने देवसे होता है और बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करनेसे जो इष्ट या अनिष्ट होता है वह अपने पौरुषसे होता है ।।२२५॥'
भावार्थ-चारों गतिके सैनी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन हो सकता है किन्तु वे जीव विशुद्ध और साकार उपयोगवाले होने चाहिएँ। सारांश यह है कि जो जीव असैनी हैं, लब्ध्यपर्याप्तक हैं, सम्मूर्छन जन्मवाले हैं, अति संक्लेश परिणामवाले हैं उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती। सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक और विशुद्ध परिणामवाले होनेपर भी जब वे दर्शनोपयोगी होते हैं, उस कालमें उन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दर्शनोपयोगमें तत्त्व विचार नहीं होता और सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय उसका होना आवश्यक है। इसीसे सोते हुए जीवको भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती। उपयुक्त बातोंके सिवा सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए पाँच लब्धियोंका होना आवश्यक है। वे लब्धियाँ हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमेंसे शुरूकी चार लब्धियाँ तो साधारण हैं, अर्थात् जिन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना संभव नहीं है उनके भी हो जाती हैं। किन्तु पाँचबी करणलब्धि तभी होती है जब सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना होती है। उसके अन्तमें ही जीवको सम्यग्दर्शन हो जाता है । जब ज्ञानावरण आदि अप्रशस्त कमोंका अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा अनन्तगुणा घटता हुआ उदयमें आता है उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है। क्षयोपशमलब्धिके होनेपर जीवके साता वगैरह प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धके कारण जो शुभ परिणाम होते हैं उसे विशुद्धिलब्धि कहते हैं। आचार्य वगैरहके द्वारा छः द्रव्यों और नौ पदार्थोंका उपदेश सुननेको मिलना देशनालब्धि है। जहाँ उपदेशका मिलना संभव नहीं है वहाँ पहले भवमें सुने हुए उपदेश
१. श्रद्धा। २. सूर्य ।