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उपासकाभ्ययन दर्शनाभावात् । परश्चेत्कोऽसौ परः ? तीर्थकरोऽन्यो वा ? तीर्थकरश्चेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनुबन्धे । तस्मादनवस्था । तदभावमाप्तसद्भावंच वाञ्छद्भिःसदाशिवः शिवापतिर्वा तस्य तत्त्वोपदेशकः प्रतिश्रोतव्यः । तदाह पतञ्जलिः-“स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।" तथा हि।
अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्छिवात्परमकारणात् ।
नादरूपं समुत्पनं शास्त्रं परमदुर्लभम्" ॥७७॥ तथाप्तेनैकेन भवितव्यम् । न ह्याप्तानामितरमाणिवद गणः समस्ति, संभवे वा चतुर्विंशतिरिति नियमः कौतस्कुत इति वन्ध्यास्तनंधयधैर्यव्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलयनं च परेषाम् । यतः
वक्ता नैव सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान्
वैविध्यादपर तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् । शक्त्या चेत्परकीयया कथमसौ तद्वानसंबन्धतः
. संबन्धोऽपि न जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥७८॥ [ इस प्रकार अन्य मतोंकी समीक्षा करनेपर उन मतोंके अनुयायी कहते हैं-]
आप जैनोंके आगममें मनुप्यको आप्त माना है। किन्तु उसका आप्तपना किसी भी तरह नहीं बनता । आज भी लाखों करोड़ों मनुष्य वर्तमान हैं, किन्तु उनमें कोई भी आप्त नहीं देखा जाता । यदि किसी तरह मनुष्यको आप्त मान भी लिया जाये तो उसे इष्ट तत्त्वका ज्ञान स्वयं तो नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता । यदि दूसरेसे ऐसा ज्ञान होता है तो वह दूसरा कौन है ? तीर्थकर है या अन्य कोई है ? यदि तीर्थकर है तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता है । यदि तीर्थक्करको इष्ट तत्त्वका ज्ञान किसी तीसरेके द्वारा होता है तो उस तीसरेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान चौथेके द्वारा होगा और चौथेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान पाँचवेंके द्वारा होगा । इस तरह अनवस्था दोष आजाता है। अतः यदि अनवस्था दोषसे बचना चाहते हैं और साथ ही साथ आप्तका सद्भाव भी चाहते हैं तो तत्त्वके उपदेष्टा सदाशिव पार्वतीपतिको ही मानना चाहिये । पतञ्जलि ऋषिने भी कहा है—'वह पहलोंके भी गुरु हैं,क्योंकि कालके द्वारा उनका नाश नहीं होता । और भी कहा है-"अशरीरी,शान्त और परम कारण शिवसे परमदुर्लभ नादरूप शास्त्रकी उत्पत्ति हुई॥७७॥
___ तथा आप्त एक ही होना चाहिये । अन्य प्राणियोंके समूहकी तरह आप्तोंका समूह तो होता नहीं है । और यदि हो भी तो चौबीस संख्याका नियम कहाँसे आया ?'
इस प्रकार दूसरे मतवालोंका उक्त कथन बन्ध्याके पुत्रके धैर्यकी प्रशंसा करनेके तुल्य व्यर्थ है, वे महान् मोहके समुद्रमें डूबे हुए हैं, क्योंकि
सदाशिव अशरीरी है अतः वह वक्ता नहीं हो सकता । और शिव यद्यपि सशरीर हैं मगर वह रागी हैं-पार्वतीके साथ रहते हैं, अतः उनका उपदेश प्रमाण नहीं माना जा सकता। यदि इन दोनोंके सिवा किसी तीसरेको वक्ता मानते हो तो वह तीसरा किससे हुआ । यदि कहोगे कि शक्तिसे हुआ, तो शक्ति तो भिन्न है, भिन्न शक्तिसे वह शक्तिवान कैसे हो सकता है, क्योंकि उन दोनोंका कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि सम्बन्ध मानोगे तो विचार करनेपर उनका कोई सम्बन्ध भी नहीं बनता है, अतः आपका शास्त्र निराधार ठहरता है क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता ॥७॥
१. यह श्लोक यशस्तिलकके पांचवें आश्वासमें पृ० २५४ पर 'तदुक्तं' करके दिया गया है ।