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सोमदेव विरचित
[श्लो० ६६पित्रोः शुद्धौ यथाऽपत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते । तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता ॥६६॥ वाग्विशुद्धापि दुष्टा स्याद् वृष्टिवत्पात्रदोषतः । वन्द्यंव चस्तदेवोच्चस्तोयवत्तीर्थसंश्रयम् ॥१७|| दृष्टेऽर्थे वेचसोऽध्यक्षादनमेयेऽनुमानतः। पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाणता ॥८॥ पूर्वापरविरोधेन यस्तु युक्तया च बाध्यते । मत्तोन्मत्तवचःप्रख्यः स प्रमाणं किमागमः ॥९॥ हेयोपादेयरूपेण चतुर्वर्गसमाश्रयात्।। कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः॥१०॥ आत्माना त्मस्थितिलोको बन्धमोक्षौ सहेतुको ।
आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ॥१०॥ आगममें शुद्धता हो सकती है। अर्थात् यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगममें भी कोई दोष नहीं पाया जाता । अतः पहले आप्त या देवकी परीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद उसके वचनोंको प्रमाण मानना चाहिए ॥९४-९६॥
___ जैसे वर्षाका पानी समुद्रमें जाकर खारा हो जाता है या सांपके मुखमें जाकर विषरूप हो जाता है, वैसे ही पात्रके दोषसे विशद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है। तथा जैसे तीर्थका आश्रय लेनेवाला जल पूज्य होता है वैसे ही जो वचन तीर्थकरोंका आश्रय ले लेता है अर्थात् उनके द्वारा कहा जाता है वही पूज्य होता है ॥९७॥
___जो वचन ऐसे अर्थको कहता है जिसे प्रत्यक्षसे देखा जा सकता है, उस वचनकी प्रमाणता प्रत्यक्षसे साबित हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थको कहता है जिसे अनुमानसे ही जाना जा सकता है उस वचनकी प्रमाणता अनुमानसे साबित होती है। और जो वचन बिल्कुल परोक्ष वस्तुको कहता है, जिसे न प्रत्यक्षसे ही जाना जा सकता है और न अनुमानसे, पूर्वापरमें कोई विरोध न होनेसे उस वचनकी प्रमाणता सिद्ध होती है। अर्थात् यदि उस वचनके द्वारा कही गई बातें आपसमें कटती नहीं हैं, तो उस वचनको प्रमाण माना जाता है ॥९८॥
भावार्थ-शास्त्रोंमें बहुत सी ऐसी बातोंका भी कथन पाया जाता है जिनके विषयमें न युक्तिसे काम लिया जा सकता है और न प्रत्यक्षसे, ऐसे कथनको सहसा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। अतः उन शास्त्रोंकी अन्य बातें, जो प्रत्यक्ष और अनुमानसे जानी जा सकती हैं वे यदि ठीक ठहरती हैं और यदि उनमें परस्परमें विरोधी बातें नहीं कही गई हैं तो उन शास्त्रोंके ऐसे कथनको भी प्रमाण ही मानना चाहिए ।
जिस आगममें परस्परमें विरोधी बातोंका कथन है और युक्तिसे भी बाधा आती है, पागलकी बकवादके समान उस आगमको कैसे प्रमाण माना जा सकता है ॥१९॥
आगमका स्वरूप और विषय । ___ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंका अवलम्बन लेकर, हेय और उपादेय रूपसे त्रिकालवर्ती पदार्थोंका ज्ञान कराता है उसे आगम कहते हैं ॥१००॥ तत्त्वके ज्ञाताओंका
१. जलवत् । २. वचनस्य । ३. प्रत्यक्षात् । ४. ज्ञापयन् । ५. पुद्गल ।