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सोमदेव विरचित [कल्प ५, श्लो० १५४भवति चात्र श्लोकः
अन्तस्तत्त्वविहीनस्य वृथा व्रतसमुद्यमः। पुंसः स्वभावभीरोः स्यान शौर्यायायुधग्रहः ॥१५४॥
इत्युपासकाध्ययने जमदग्नितपःप्रत्यवसादनो नाम पञ्चमः कल्पः । पुनस्तौ त्रिदशौ मगधदेशेषु कुशाग्रनगरोपान्तापातिनि पितृवने कृष्णचतुर्दशीनिशि निशाप्रतिमाशयवशमेकाकिनं जिनदत्तनामानमुपासकमवलोक्य साक्षेपम् 'अरे दुराचाराचरणमते निराकृते अविदितपरमपद मनुष्यापसद, शीघ्रमिमामूर्ध्वशोषं शुष्कस्थाणुसमां प्रतिमां परित्यज्य पलायस्व । न श्रेयस्करं खलु तवात्रावसरं पश्यावः । यस्मादावां होतस्याः परतपुरभूर्यस्या भूमेः पिशाचपरमेश्वरौ । तदलमत्र कालव्यालावलोकनकरप्रंस्थानेन । मा हि कार्षीरन्तरायोत्कर्ष भावमतुच्छस्वच्छन्दकेलिकुतूहलबहलान्तःकरणप्रसवयोरावयोः' इत्युक्तमपि प्रकामप्रणिधानोद्युक्तमवेक्ष्य न्यतः कीनाशकाशरनिकायकायाकारघोरघनघस्मराडम्बरप्रथमप्रारम्भाव हैः प्रचण्डतडिदण्डसंघहोच्छलच्छब्दसंदोहदुःस है: निःसीमसमीरासरालसूत्कारसारप्रसरप्रबलैः करालवेतालकुलकाहलकोलाहलानुकूलैरन्यसामान्यैरन्यैश्च परिगृहीतगृहदाहबान्धवधनविध्वंसानुबन्धैः प्रत्यूहप्रबन्धैः" सबहुमानैस्तत्तद्वरप्रदानैश्च निःशेषामप्युषामध्यात्मसमाधिनिरोधनिघ्नौ लिया और तृण लता वगैरहसे सुशोभित गंगाके तटपर एक बड़ा आश्रम स्थापित करके परशुरामके पिता बन गये।
ऐसे ही लोगोंके लिए किसीने कहा है
'आत्मज्ञानसे शून्य मनुष्यका व्रताचरणका प्रयास व्यर्थ है। ठीक ही है जो मनुष्य स्वभावसे ही डरपोक है, शस्त्र ग्रहण करनेसे उसमें शौर्य नहीं आ जाता ॥१५४॥
फिर वे दोनों देव मगध देशके कुशाग्र नगरके निकटवर्ती स्मशानमें पहुँचे। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीकी रात्रिका समय था । जिनदत्त नामका एक जैन श्रावक अकेला रात्रिमें प्रतिमा योगसे स्थित था । उसे देखकर वे दोनों देव तिरस्कारपूर्वक बोले- 'अरे दुराचारी,विरूप, परम पदसे अनजान, नीच मनुष्य ! शीघ्र ही इस सूखे ढूँठके समान प्रतिमायोगको छोड़कर भाग जा। तेरा यहाँ ठहरना ठीक नहीं है क्योंकि हम दोनों इस स्मशान भूमिके पिशाचोंके स्वामी हैं। हम दोनोंका अन्तःकरण अति स्वच्छन्द होकर क्रीड़ा करनेके लिए आतुर है। इसमें बाधा मत डालो।'
इस प्रकार कहनेपर भी उसे आत्मध्यानमें तल्लीन देखकर उन दोनोंने विघ्न करना प्रारम्भ किया। यमराजके समान भयंकर काले-काले मेघ उमड़ आये, बिजलीका भयंकर गर्जनतर्जन होने लगा, जोरकी हवा सर-सर करती हुई बहने लगी, भयानक वेतालोंकी आवाजके जैसी आवाजें होने लगीं, जब इससे भी वह विचलित नहीं हुआ तो उसका गृह-दाह, बन्धु-बान्धवों और धनादिकका विनाश होता हुआ उसे दिखाया गया। जब इससे भी विचलित नहीं हुआ तो बड़े आदरके साथ उसे अनेक वरदान दिये गये । इस प्रकार उसकी समाधिको . भंग करनेके
१. राजगृह। २. निकृष्टा आकृतिर्यस्य । ३. कायोत्सर्गम् । ४. महत्याः । ५. स्थितिकरणेन । ६.-कर्षाभाव-अ०, ज०, मु०, आ०। ७. ध्यानस्थम् । ८. सामस्त्यत: । ९. यम । १०. महिष । ११. विघ्नस्वनैः । १२. रात्रि । १३. तत्परौ।