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उपासकाध्ययन
शाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वसूयते । स्वर्गापवर्गभूर्लक्ष्मीनं तस्याप्यसूयते ॥२०४॥ समर्थश्चित्तवित्ताभ्यामिहाशासनभासकः । समर्थश्चित्तवित्ताभ्यां स्वैस्यामुत्र न भासकः ॥२०५॥ तहानज्ञानविज्ञानमहामहमहोत्सवैः । दर्शनद्योतनं कुर्यादैहिकापेक्षयोज्झितः ॥२०६॥
जो मुनियों के ज्ञान, तप और पूजाकी निन्दा करता है, उनमें झूठा दोष लगाता है, स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी भी नियमसे उससे द्वेष करती है। अर्थात् उसे न स्वर्गके सुखोंकी प्राप्ति होती है, और न मोक्ष ही मिलता है ॥२०४॥
इस लोकसे बुद्धि और धनमें समर्थ होनेपर भी जो जिनशासनकी प्रभावना नहीं करता, वह बुद्धि और धनसे समर्थ होनेपर भी परलोकमें अपना कल्याण नहीं करता। अतः ऐहिक सुखकी इच्छा न करके दान, ज्ञान, विज्ञान और महापूजा आदि महोत्सवोंके द्वारा सम्यग्दर्शनका प्रकाश करना चाहिए ।।२०५-२०६॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शनका एक अंग प्रभावना है। जैनधर्मके महत्त्वको प्रकट करना, ऐसे कार्य करना जिससे लोगोंमें जैनजमको जानकारी हो, जैनधर्मके विषयमें फैला हुआ अज्ञान दूर हो और जनताकी रुचि जैनधर्मकी ओर आकृष्ट हो, प्रभावना कहलाता है। पहले जैनधर्ममें बड़े-बड़े तपस्वी मुनि, ज्ञानी, आचार्य और धर्मात्मा सेठ होते थे। तपस्वी मुनि अपनी तपस्याके द्वारा जनतापर ऐसा प्रभाव डालते थे जिससे स्वयं जनता उनकी ओर आकृष्ट होती थी और उनसे संयमकी शिक्षा लेकर अपने इस जन्म और परजन्मको सुखी बनाती थी। ज्ञानी, आचार्य जगह-जगह विहार करके जैनधर्मका उपदेश देते थे। यदि कहीं जैनधर्मपर आक्षेप होते थे तो उनको दूर करते थे, यदि कोई शास्त्रार्थ करना चाहता था तो राजसभाओंमें उपस्थित होकर शास्त्रार्थ करते थे और यदि कहीं किसी प्रतिद्वन्द्वीके द्वारा जैनधर्मके कार्योंमें रुकावट डाली जाती थी तो अपनी वाग्मिताका प्रभाव डालकर उन रुकावटोंको दूर करते थे। तथा बड़े-बड़े ग्रन्थराज रचकर जिनवाणीके भण्डारको भरते थे। आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी समन्तभद्र, भट्टाकलंक, स्वामी वीरसेन, स्वामी जिनसेन आदि महान् आचार्योंके पुण्यश्रमका ही यह फल है जो जैनधर्म आज भी जीवित है। इसी प्रकार राजा, सेठ, साहूकार तरह-तरहका महोत्सव करके जैनधर्मका प्रकाश करते थे । आज न वैसे तपस्वी मुनि हैं, न ज्ञानी आचार्य हैं और न वैसे धर्मात्मा सेठ हैं । फिर भी आज जैनधर्मके प्रकाशको फैलानेकी बहुत आवश्यकता है । जैन बालक, बालिकाएँ दिन-पर-दिन धर्मसे अनजान बनते जाते हैं, उन्हें शिक्षा देनेके लिए पाठशालाएँ खोलनी चाहिएँ। विद्वानोंको पैदा करनेका तथा उनकी परम्परा बनाये रखनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए; क्योंकि उनके विना शिक्षा उपदेश और शास्त्राथोंका आयोजन नहीं हो सकता। इसी तरह जनतामें प्रचारके लिए विविध भाषाओंमें
१. 'बोधे तपसि सन्माने यतीनां यस्त्वसूयति । रत्नत्रयमहासम्पन्ननं तस्याप्यसूयति ॥१२॥'-प्रबोधसार । स्वर्गापवर्गविषये भवतीति भूः । २. न शासनदीपको भवति । ३. स्वस्यात्मनः परलोके स उद्योतको न भवति । ४. इहलोकसुखापेक्षारहितः ।