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उपासकाध्ययन
इति विचिन्त्य, चेतोभूविजम्भप्रारम्भंनिवार्यावधार्य च, किमियं विहितविवाहोपचारा, किं वाद्यापि पतिवेरा' इति भिनापृच्छय तत्र 'द्वितीयपक्षे सर्वथास्मत्पने कर्तव्या' इति समर्पिताभिलाषमातपुरुषं प्रेष्य रणरणकजडान्तःकरणः शरणमगात् । आप्तपुरुषोऽप्यप्रमहिषीपदपणेबन्धेन साध्यसिद्धि विधाय स्वामिनं तत्समागमिनमकरोत् । भवति चात्रार्या
पुण्यं वा पापं वा यत्काले जन्तुना पुराचरितम् ।
तत्तत्समये तस्य हि सुखं च दुःखं च योजयति ॥२१०॥ __ इत्युपासकाध्ययने बुद्धदास्याः पूतिकवाहनवरणो नाम सप्तदशः कल्पः।
अथ समायाते भन्यजनानन्दसंपादितकर्मणि नन्दीश्वरपर्वणि तया पतिप्रणयप्रेयस्या बुद्धदास्या प्रतिचातुर्मास्यमौर्विलादेव्याः स्यन्दनविनिर्गमेण भगवतः सकलभुवनोद्धरणस्थितेर्जिनपतेर्महामहोत्सवकरणमुत्से तुमिच्छन्त्या शुद्धोदनतनयस्येष्टार्थमष्टाहा सकलपरिवारानुगतमेतदुचितमुपकरणजातमवनिपतिर्याचितस्तथैव प्रत्यपद्यत । ऊर्विलादेव्यपि सुभगभावात्सपत्नीप्रभवं दौर्जन्यमनन्यसामान्यमप्रतीकारमाकलय्य सोमदत्ताचार्यमुर्पसद्य 'भदन्त, यद्यतस्मिन्वित्रिदिनभाविन्यष्टाहामहे पूर्वक्रमेण जिनपूजार्थे मथुरायां मदीयो रथो भ्रमिष्यति, तदा मे देहस्थितिहेतुषु वस्तुषु साभिलाषं मनः, अन्यथा निरभिलाषम्' इति प्रतिजिज्ञासमाना
फिर उसने अपने चित्तमें उठते हुए बवण्डरको जिस किसी तरह रोककर आगेका मार्ग निर्धारित किया। एक विश्वस्त पुरुषको बुलाकर उससे अपने मनकी अभिलाषा बतलाकर वह बोला-'तुम भिक्षुके पास जाकर यह पूछो कि यह कन्या विवाहित है या अविवाहित ? यदि अविवाहित हो तो उसे हमारे लिए तैयार करो।' उस विश्वस्त पुरुषने राजमहिषीका पद प्रदान करनेकी प्रतिज्ञा करके उसका राजाके साथ विवाह करा दिया।
किसीने ठीक कहा है
'जीवने पूर्वजन्ममें जो पुण्य या पाप किया है, समय आनेपर वह उसे अवश्य सुख या दुःख देता है' ॥२१०॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें बुद्धदासी द्वारा पूतिकवाहनके वरणका वर्णन करनेवाला
सत्रहवाँ कल्प समाप्त हुआ। इसके बाद भव्यजनोंको आनन्द देनेवाला नन्दीश्वर पर्व आया । इस पर्वमें पूतिकवाहन राजाकी रानी ऊर्विलादेवी बड़ा भारी महोत्सव करके जिनेन्द्रदेवका रथ निकालती थी। बुद्धदासीने उसके महोत्सवको नष्ट-भ्रष्ट करनेके लिए बुद्धदेवकी पूजाका आयोजन किया और उसके योग्य सब सामग्री राजासे माँगी। राजाने सब सामान दे दिया। जब ऊर्विलाको अपनी सौतकी इस असाधारण दुर्जनताका पता चला तो उसे इसका कोई प्रतीकार न सूझा । तब वह सोमदत्त आचार्यके पास गई और बोली-भगवन् , यदि इस दो-तीन दिनमें आनेवाले अष्टाह्निकापर्व में पुराने क्रमके अनुसार जिन भगवान्की पूजाके निमित्तसे मेरा रथ मथुरामें निकलेगा तो मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगी, नहीं तो मेरा त्याग है।' यह सुनकर सोमदतने उसके मनोरथको पूर्ण करनेकी भावनासे मुनि वज्रकुमारकी ओर देखा । वज्रकुमारने उसे समझाते हुए कहा-'सम्यग्दृष्टि ललनाओंमें अग्रणी
१. कन्या। २. चेत् कन्या भवति तहि ममाधीना कर्तव्येति । ३. उद्वेग । ४. गृह । ५. प्रतिज्ञया। ६. उच्छेदनकर्तुं । ७. बुद्धस्य । ८. प्राप्य । ९. प्रतिज्ञां कर्तुमिच्छन्ती ।